🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता क्या है? | Shrimad Bhagwat Geeta Kya Hai

श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता क्या है?

श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत रूपी महासागर का एक अमूल्य रत्न है। धृतराष्ट्र और पाण्डु दो भाई थे। उनका जन्म कुरुवंश में हुआ था। बड़ा भाई धृतराष्ट्र जन्म से नेत्रहीन था, इसलिये छोटे भाई पाण्डु को राजसिंहासन मिला । पाण्डु की मृत्यु के समय उसके पुत्र (पाण्डव) छोटे थे, इसलिये राज्यभार कुछ समय के लिये धृतराष्ट्र को दे दिया गया। राजा बनने पर धृतराष्ट्र के मन में लोभ आ गया और वह अपने पुत्र दुर्योधन को राजा बनाने की इच्छा रखने लगा। उसके पुत्र कौरवों ने पाण्डवों को मारने के लिए बहुत से प्रयत्न किये, पर वो सफल नहीं हो पाये। अंत में एक बार द्यूत-क्रीड़ा (जुए) में दुर्योधन के छल प्रयोग से पाण्डव हार गये और शर्तानुसार उन्हें 12 वर्ष के वनवास और एक वर्ष के अज्ञातवास पर जाना पड़ा। वापस आने पर पाण्डवों ने दुर्योधन से अपना राज्य माँगा, किन्तु उसने देने से इन्कार कर दिया। उसके पश्चात् भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं संधिदूत बनकर दुर्योधन के पास गये और दुर्योधन से पाण्डवों का राज्य लौटा देने का निवेदन किया। दुर्योधन के मना करने पर केवल पाँच गाँव की माँग रखी, परन्तु दुर्योधन ने कहा - 'युद्ध के बिना मैं सुईं की नोक के बराबर भी भूमि नहीं दूँगा।' युद्ध अनिवार्य हो गया।
धृतराष्ट्र और पाण्डु राजा भरत के वंशज थे, इसलिये इस युद्ध का नाम 'महाभारत' पड़ा। अर्जुन और दुर्योधन दोनों सहायता माँगने के लिये भगवान् श्रीकृष्ण के पास गये। भगवान् निद्रा में थे। दुर्योधन पहले पहुँचा, परन्तु अहंकारवश वह भगवान् के सिरहाने की तरफ बैठा और अर्जुन बैठा चरणों की तरफ। आँख खुलने पर भगवान् की दृष्टि पहले अर्जुन पर पड़ी। भगवान् ने अर्जुन से कहा- मैंने पहले तुमको देखा है, इसलिये पहले तुम माँगो एक पक्ष में मैं रहूँगा नि:शस्त्र, युद्ध नहीं करूँगा और दूसरे पक्ष में मेरी नारायणी सेना होगी। अर्जुन ने माँग की - मुझे तो आप (भगवान्) चाहिये, केवल आप। अर्जुन की इच्छानुसार समूचे त्रैलोक्य की बागडोर संभालने वाले भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने और दुर्योधन को नारायणी सेना मिली महाभारत का युद्ध प्रारंभ हुआ।

श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता के बारे में

श्रीमद् भगवद् गीता, भारतीय धार्मिक ग्रंथों में से एक है, और यह हिन्दू धर्म के महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। गीता का नाम संस्कृत में "गीत" या "गान" का अर्थ होता है, और यह ग्रंथ महाभारत के भीष्म पर्व के अंतर्गत आता है। गीता का मूल अध्याय महाभारत के युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ था।
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श्रीमद् भगवद् गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धर्म, कर्म, भक्ति, ज्ञान, और मोक्ष के विभिन्न पहलुओं के बारे में उपदेश दिया। यह ग्रंथ कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग, और ध्यानयोग के माध्यम से मानव जीवन के मार्ग को समझाता है और आत्मा के आद्यात्मिक विकास की दिशा में मार्गदर्शन प्रदान करता है।
गीता में कुल 18 अध्याय और लगभग 700 श्लोक हैं, जिनमें भगवान श्रीकृष्ण के उपदेश का वर्णन किया गया है। यह ग्रंथ हिन्दू धर्म के आदिकवि व्यास द्वारा रचा गया था और इसका महत्व भारतीय धार्मिक और दार्शनिक परंपरा में अत्यधिक है। गीता का संदेश न केवल धार्मिक बल्कि मानव जीवन के हर क्षेत्र में लागू हो सकने वाला है और यह आज भी लोगों के जीवन में मार्गदर्शन प्रदान करता है।

श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता के श्लोक

श्रीमद् भगवद् गीता के कुछ प्रमुख और महत्वपूर्ण श्लोक निम्नलिखित हैं:

1. अर्जुन विषाद योग (Chapter 1, Verse 1):
   धृतराष्ट्र उवाच
   धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः |
   मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ||

2. भक्ति योग (Chapter 9, Verse 22):
   अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते |
   तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||

3. कर्मयोग (Chapter 3, Verse 19):
   तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर |
   असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ||

4. ज्ञानयोग (Chapter 4, Verse 7):
   यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत |
   अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||

5. ध्यानयोग (Chapter 6, Verse 5):
   उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
   आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ||

6. अन्तकाले च मामेव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम् (Chapter 8, Verse 5):
   अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् |
   यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ||

ये श्लोक श्रीमद् भगवद् गीता के कुछ महत्वपूर्ण भाग हैं जो धार्मिक, दार्शनिक, और आध्यात्मिक ज्ञान को प्रकट करते हैं और मानव जीवन के मार्ग को प्रशस्त करते हैं।

श्रीमद् भगवद् गीता के 18 अध्याय

श्रीमद् भगवद् गीता का पूरा ग्रंथ 18 अध्यायों में विभाजित है, जिनमें भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विभिन्न पहलुओं पर उपदेश दिया। निम्नलिखित हैं इन 18 अध्यायों के नाम:
  1. अर्जुनविषादयोग (अध्याय 1)
  2. सांख्ययोग (अध्याय 2)
  3. कर्मयोग (अध्याय 3)
  4. ज्ञानकर्मसंन्यासयोग (अध्याय 4)
  5. कर्मसंन्यासयोग (अध्याय 5)
  6. ध्यानयोग (अध्याय 6)
  7. आत्मसंयमयोग (अध्याय 7)
  8. अक्षरब्रह्मयोग (अध्याय 8)
  9. राजविद्याराजगुह्ययोग (अध्याय 9)
  10. विभूतियोग (अध्याय 10)
  11. विश्वरूपदर्शनयोग (अध्याय 11)
  12. भक्तियोग (अध्याय 12)
  13. क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग (अध्याय 13)
  14. गुणत्रयविभागयोग (अध्याय 14)
  15. पुरुषोत्तमयोग (अध्याय 15)
  16. दैवासुरसम्पद्विभागयोग (अध्याय 16)
  17. श्रद्धात्रयविभागयोग (अध्याय 17)
  18. मोक्षसन्न्यासयोग (अध्याय 18)
इन अध्यायों में भगवद् गीता का संदेश और उपदेश विभिन्न पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है और यह ग्रंथ आत्मा के स्वरूप, धर्म, कर्म, भक्ति, और मोक्ष के विषय में विस्तार से चर्चा करता है।

संसार का प्रत्येक मनुष्य शाश्वत आनन्द चाहता है, स्थायी सुख चाहता है, दुःख की आत्यंतिक निवृत्ति चाहता है और इसी सुख, आनन्द की प्राप्ति के लिए, दुःख की निवृत्ति के लिए मनुष्य दिन-रात भागदौड़ करता है, पुरुषार्थ करता है । वह संसार के बाह्य पदार्थों की प्राप्ति को ही सच्ची खुशी मानकर जीवन पर्यन्त अपने शरीर एवं कुटुम्ब - परिवार के पालन-पोषण में, सुख-सुविधाओं को जुटाने में, धन कमाने में व्यस्त रहता है और समझता है कि जीवन इसी कार्य के लिये मिला है, यही जीवन में करना था, इसी में ही उसके जीवन का दायित्व पूरा हो रहा है। पर क्या ये ही उसके जीवन का वास्तविक लक्ष्य है ? यदि ये ही उसके जीवन का वास्तविक उद्देश्य होता, तो फिर इन कार्यों के करने से मनुष्य को सच्चा सुख, आनन्द भी प्राप्त होना चाहिए था । परन्तु होता इसके विपरीत है। देखने में यही आता है कि ज्यों-ज्यों मनुष्य शारीरिक भोगों और ऐन्द्रिक सुखों की ओर अधिक प्रवृत्त होता है, उतना ही सुख, आनन्द और शान्ति से वंचित होता चला जाता है। दुःख, कष्ट, क्लेश और चिन्ता में वृद्धि होती चली जाती है तथा अशांति बढ़ती जाती है। इससे स्पष्ट है कि वह सुख की खोज गलत जगह पर कर रहा है, गलत मार्ग अपना रहा है। वह अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को भूला हुआ है। मनुष्य को उसके वास्तविक लक्ष्य से अवगत कराकर उसे शाश्वत सुख और आनन्द की प्राप्ति कराने के उद्देश्य से, प्राचीन काल से ही महान मनीषी एवं तत्त्ववेत्ता ऋषि-मुनिजन ईश्वर तथा जीवात्मा के स्वरूप तथा भक्ति, ज्ञान एवं कर्म आदि गहन विषयों का विवेचन करते आये हैं। इन विषयों पर प्रकाश डालने वाले वेद, शास्त्र व अन्य धर्मग्रन्थ हमारी अमूल्य निधि हैं, पर उनमें श्रीमद्भगवद्गीता का स्थान सर्वोपरि माना गया है; क्योंकि गीता सर्वशास्त्रमयी है।
गीता में सारे शास्त्रों का सार भरा हुआ है। इसे सारे शास्त्रों का खजाना कहें तो भी अतिश्योक्ति न होगी। सारे उपनिषदों का निचोड़ गीता के 700 श्लोकों में आ जाता है। गीता का भली-भाँति ज्ञान हो जाने पर उपनिषदों एवं शास्त्रों का ज्ञान अपने आप हो जाता है । लेकिन गीता के लिये इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है। क्यों? सारे शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई, वेदों का प्राकट्य ब्रह्माजी के मुख से हुआ और ब्रह्माजी भगवान् विष्णु के नाभिकमल से उत्पन्न हुए और भगवान् श्रीकृष्ण, भगवान् विष्णु का ही पूर्ण अवतार हैं। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण और शास्त्रों के बीच में तो बहुत अधिक फासला आ गया, किन्तु गीता तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के मुखारविन्द से निकली हुई परम रहस्यमयी दिव्य वाणी है। इसलिए गीता को सभी शास्त्रों एवं वेदों से बढ़कर कहा जाता है। गीता को उपनिषद भी कहा गया है। गीता के प्रत्येक अध्याय के अन्त में लिखा गया-

इति श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषद एवं ब्रह्मविद्या तथा योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद में.....योग नामक.....अध्याय ।

गीता एक अद्भुत, महान, परम रहस्यमय एवं पावन ग्रन्थ है। ज्ञान का अथाह समुद्र है गीता। गीता जैसी ख्याति आज तक विश्व में किसी भी अन्य ग्रन्थ ने हासिल नहीं की। इस ग्रन्थ में विश्व के सभी धर्मों व दर्शन के आधारभूत तत्त्व विद्यमान हैं। गीता में सब तरह के व्यक्तियों के मार्गों की चर्चा की गई है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अब तक सत्य तक पहुँचने के जितने द्वार हैं उन सब का ही वर्णन कर दिया है गीता में, इसलिये गीता एक सम्पूर्ण ग्रन्थ है। विश्व में गीता एक अकेला ऐसा ग्रन्थ है जिसका जन्मदिन मनाया जाता है ' गीता-जयन्ती' के रूप में। उत्सुकता होना स्वाभाविक ही है कि आखिर भगवद्गीता है क्या? इसका प्राकट्य कहाँ, क्यों और कैसे हुआ ? हजारों वर्ष पूर्व मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी के मंगल प्रभात के समय कुरुक्षेत्र की रणभूमि पर महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मोह - अज्ञान से ग्रस्त अर्जुन को, उसके मोह का नाश करने के लिये ज्ञानयोग, कर्मयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग आदि विभिन्न साधनों का उपदेश देकर उसे आत्मबोध कराया और कर्त्तव्य के पालन में प्रवृत्त किया यानि धर्मयुद्ध के लिये तैयार किया। अपने परमसखा अर्जुन के मोह का नाश करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण के मुख से जो ज्ञान-प्रवाह बहा, वही भगवत् - गीत यानि भगवद्गीता के नाम से विश्वविख्यात हुआ। भगवद्गीता के संकलनकर्ता श्री व्यास जी हैं।
जीवन एक संग्राम है। मानव-मन ही कुरुक्षेत्र का युद्ध - स्थल है, जहाँ शुभ और अशुभ वृत्तियों का युद्ध सदैव चलता रहता है जीवन की अंतिम श्वास तलक। या यूँ कहिये कि मानव जीवन रूपी युद्ध क्षेत्र में तीनों गुणों (सत्व, रज, तम) का युद्ध निरन्तर चलता रहता है कम या ज्यादा। जिस मनुष्य की जैसी परिस्थिति होती है उसके अनुरूप उसे युद्ध में लगना ही पड़ता है। भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को निमित्त बनाकर गीता -ज्ञान के द्वारा मानव-जीवन के कल्याण के लिये कर्त्तव्य विमुख मानव को निर्विघ्न कर्त्तव्य पथ पर चलने का मार्ग प्रशस्त किया है। अर्थात् जीवनोमुख बनाने का प्रयास किया है। कैसे ? अज्ञानता वश परिवार, सम्बन्धियों, मित्रों आदि के मोह यानि निज स्वार्थ को हम अपना कर्त्तव्य मान लेते हैं। परन्तु वास्तव में यही सबसे बड़ा अनर्थ का कारण है। अर्जुन एक अप्रतिम योद्धा था, परन्तु मोहग्रस्त होकर अपने धर्म से दूर भाग रहा था, जैसे एक न्यायाधीश के सामने यदि उसका पुत्र अपराधी के रूप में न्यायालय में खड़ा हो और उसे अर्जुन के समान पुत्र-मोह व्याप जाये, तो क्या करेगा वह? पुत्र की ममता या मोह में, पुत्र की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझ कर उसे दण्डित नहीं करेगा। किसी निरपराधी को सजा मिलेगी, न्याय नहीं मिल पायेगा। इससे समाज में अराजकता बढ़ेगी और अधर्म की वृद्धि होगी। इसी प्रकार एक देशभक्त के सामने उसका कोई अपना सम्बन्धी या दोस्त, यदि आतंकी या देशद्रोही के रूप में खड़ा हो और वह उसके मोह से ग्रस्त होकर उसे छोड़ दे। क्या परिणाम होगा? सोचो जरा!
गीता में अर्जुन के माध्यम से भगवान् श्रीकृष्ण ने सबको यही समझाया है कि कर्त्तव्य अर्थात् धर्मपालन के समय हमें मोह से ऊपर उठकर अपना धर्म (कर्त्तव्य) निभाना चाहिये। यानि न्यायाधीश को अपने अपराधी पुत्र को दण्डित करना चाहिये और देशभक्त को, आंतकी को सजा देनी ही चाहिये। यही धर्म है, यही कर्त्तव्य है। इसी प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में धर्मपालन को सर्वोपरि रखना चाहिये।
भारत के सभी न्यायालयों में गवाही से पहले भगवद्गीता को नैतिक आधार बना ‘भगवद्गीता’ पर हाथ रखवा कर कसम दिलवाना कि 'मैं जो कुछ कहूँगा सच कहूँगा, सच के सिवा और कुछ नहीं कहूँगा' साधारण जनमानस में गीता के प्रति आदर और महत्त्व को दर्शाता है। गीता की भूमिका भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में भी रही है । महात्मा गाँधी जैसे प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी की मुख्य प्रेरणास्त्रोत गीता ही थी। परन्तु विडम्बना! समाज में गीता - ग्रन्थ को जितना मान मिलता है, उतना गीता में वर्णित उपदेशों को नहीं मिलता। जैसे संसार में गुरु को मानने वाले तो बहुत मिल जाते हैं, पर गुरु की बात को मानने वाले बिरले ही होते हैं ('गुरु को मानना' मतलब गुरु में श्रद्धा - विश्वास रखना, गुरु के दर्शन करना, गुरु की पूजा करना इत्यादि और 'गुरु की बात मानना' मतलब गुरु के बताये हुए रास्ते पर चलना), उसी प्रकार भगवद्गीता तो अधिकांशतः हर हिन्दू घर में मिल जाती है। लोग गीता का आदर भी करते हैं, गीता में श्रद्धा भी रखते हैं। नित्य गीता का पाठ करने वालों की भी कमी नहीं है, परन्तु अधिकांशतः वो भी गीता का अर्थ समझे बिना ही गीता-पाठ करते हैं। ग्रन्थ का आदर करना, उसे माथे से लगाना या बिना समझे पढ़ना, यह सम्मान उस ग्रन्थ के लिये है, उसमें समाहित ज्ञान के लिए नहीं। यदि अन्दर दिये गये ज्ञान, शिक्षा या संदेश को समझा जाये, उसे जीवन में, व्यवहार में उतारा जाये, तो निश्चित ही (सही रूप से) ग्रन्थ का सम्मान हो । ग्रन्थ में दिये गये उपदेशों को जब तक हम अपने आचरण में प्रतिष्ठित नहीं करेंगे, व्यवहार में नहीं लायेंगे, तब तक आत्मीय आनन्द हमसे दूर रहेगा। जिस प्रकार स्वादिष्ट व्यंजनों से भरे थाल को सिर्फ देखते रहने से या पास में होने से उसके स्वाद का अनुभव नहीं होता, भूख शान्त नहीं होती। स्वाद का आनन्द तभी आता है, तृप्ति तभी होती है, जब उसे ग्रहण किया जाता है। उसी प्रकार गीता-ग्रन्थ भी अनेक स्वादिष्ट ज्ञान-भक्ति रूपी व्यंजनों से भरा पड़ा है, आवश्यकता है उसे ग्रहण करने की यानि समझ करके यथासंभव अपने जीवन में उतारने की।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि गीता का इतना महत्त्व होते हुए भी, गीता के लिये मन में इतना आदर होते हुए भी भक्तजन गीता पढ़कर उसका लाभ क्यों नहीं उठा पाते? कारण- गीता में वर्णित विषयों को समझ पाना हम साधारण मनुष्यों की बुद्धि से परे है। इसलिये गीता के अर्थ को नहीं समझ पाने के कारण भक्तजन गीता का अध्ययन नहीं करते और जो करते भी हैं, वो भी पूरा-पूरा लाभ नहीं उठा पाते। गीता - ज्ञान क्या है? इसकी विस्तृत व्याख्या करना अति कठिन है। ज्ञान, भक्ति और कर्म की इस अमूल्य निधि का भ भक्तजन लाभ उठा सकें, इसी उद्देश्य से 'पूज्यपाद श्री स्वरूपानन्द जी महाराज (स्वामी जी' ने असीम अनुकम्पा करके 'श्रीमद्भगवद्गीता' के श्लोकों की सरल व्याख्या कर अपने भक्तों को समझाया। स्वामी जी ने गीता में दिये गये भगवान् श्रीकृष्ण के उपदेशों का निरूपण इस प्रकार से किया है कि जनसाधारण भी इन्हें समझ सके और उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो सके स्वामीजी के उन्हीं व्याख्यानों को कैसेट में रिकॉर्ड कर लिया गया था।
लेकिन स्वामी जी की कुटी खुले स्थान पर, खेतों के बीच में होने के कारण रिकॉर्डिंग में स्वामी जी की वाणी के साथ-साथ हवा की आवाज खड़खड़ (Disturbance) बहुत है। इस कारण से गुरुदेव की वाणी को सुनकर उसका अर्थ समझना बहुत कठिन हो रहा था। स्वामी जी के गीता-सम्बन्धी विचार सभी तक पहुँच सकें, सभी भक्त गीता-ज्ञान से लाभ उठा सकें, इसलिये रिकॉर्डिंग को सुनकर उसे शब्दों में लिखकर यह पुस्तक तैयार की गई है। क्योंकि भगवद्गीता के श्लोकों की ये व्याख्या पुस्तक के लिये नहीं वरन् भक्तों को समझाने के लिये कथा में की गई थी, इसलिये बहुत से शब्दों को, वाक्यों को दो या दो से ज्यादा बार भी बोला गया है और किसी-किसी स्थान पर कोई-कोई वाक्य अधूरापन भी लिये हुए है; उसे गुरु-वाणी होने के कारण बिना हटाये ज्यों का त्यों पुस्तक में लिखने का प्रयास किया है। स्वामी जी ने बहुत से स्थानों पर संस्कृत में श्लोक बोलकर (कहीं पूरा, कहीं आधा, कहीं एक - दो शब्द) फिर उसकी हिन्दी समझाकर उसकी व्याख्या की थी, परन्तु संस्कृत भाषा का अल्पज्ञान होने के कारण अशुद्धि हो जाने के डर से वहाँ पर उन संस्कृत के श्लोकों को न लिखकर हिन्दी में श्लोक लिखने से पहले संस्कृत में श्लोक लिख दिये गये हैं। कथा में गीता का मूल पाठ संस्कृत में और हिन्दी में उसका अर्थ 'श्रीमद्भगवद्गीता माहात्म्य सहित, गीताप्रेस गोरखपुर (78वाँ संस्करण)' से किया गया था।
अब अंतिम परन्तु सबसे महत्त्वपूर्ण बात! भगवद्गीता का अध्ययन कैसे किया जाये? क्या केवल एक ग्रन्थ की तरह? तो इसका समाधान - श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्य के माहात्म्य में आता है कि एक बार श्रीलक्ष्मी जी ने भगवान् श्रीहरि को ध्यान में लीन देखकर पूछा - 'हृषीकेश! आप ही योगी पुरुषों के ध्येय हैं, आप सर्वसमर्थ हैं। आपके अतिरिक्त भी कोई ध्यान करने योग्य तत्त्व है, यह जानकर मुझे बड़ा कौतूहल हो रहा है। यदि आप उस परमतत्त्व से भिन्न हैं, तो मुझे उसका बोध कराइये।' श्री भगवान् बोले-'मैं तत्त्व का अनुसरण करने वाली अन्तर्दृष्टि के द्वारा अपने ही माहेश्वर तेज का यानि आत्मस्वरूप का साक्षात्कार कर रहा हूँ। वह माहेश्वर तेज एक, अजर, प्रकाशस्वरूप, आत्मरूप, रोग-शोक से रहित, अखण्ड आनन्द का पुँज, मन-वाणी की पहुँच से बाहर, परमानन्दमय और द्वैतरहित है। इस जगत का जीवन उसी के अधीन है। वही मेरा ईश्वरीय रूप है। आत्मा का एकत्व ही सबके द्वारा जानने योग्य है। गीता-शास्त्र में इसी का है। परमानन्दमय और मन-वाणी की पहुँच से बाहर होते हुए भी, गीता कैसे प्रतिपादन हुआ उसका बोध कराती है सुनो।

श्रृणु सुश्रोणि वक्ष्यामि गीतासु स्थितिमात्मनः ।
वक्त्राणि पञ्च जानीहि पञ्चाध्यायाननुक्रमात् ।।
दशाध्यायान् भुजांश्चैकमुदरं द्वौ पदाम्बुजे ।
एवमष्टादशाध्यायी वाङ्मयी मूर्तिरैश्वरी ।।

सुन्दरी! सुनो मैं गीता में अपनी स्थिति का वर्णन करता हूँ। क्रमशः पाँच अध्यायों को तुम पाँच मुख जानो, दस अध्यायों को दस भुजाएँ समझो तथा एक अध्याय को उदर और दो अध्यायों को दोनों चरण कमल जानो। इस प्रकार यह अठारह अध्यायों की मेरी वाङ्मयी ईश्वरीय मूर्ति ही समझनी चाहिए।
इसलिए अध्ययन करते हुए ऐसा भाव बनायें कि गीता केवल पुस्तक ही नहीं है, वरन् भगवान् श्रीकृष्ण की वाङ्मयी मूर्ति है भगवद्-वाणी के रूप में साक्षात भगवान् ही हमारे पास हैं। और क्योंकि भगवान् की वाणी की गहनता को समझना हम अल्पमतियों के लिए संभव नहीं, इसलिये गुरुदेव ने अपनी वाणी में गीता के श्लोकों की व्याख्या करके हम पर कृपा बरसाई है, इस प्रकार गुरु- वाणी के रूप में गुरुदेव भी हमारे पास हैं। इसलिये इस पुस्तक का पाठ सिर्फ पाठ ही नहीं, वरन् भगवान् व गुरुदेव की पूजा है। ऐसा भाव बनाकर श्रद्धा विश्वास के साथ अध्ययन करें, तब अन्तःकरण की शुद्धता और विचारों में पवित्रता अपने आप होने लगेगी।
इस प्रकार यदि सच्ची जिज्ञासु भावना से इस पुस्तक का स्वाध्याय, मनन एवं चिन्तन किया गया, तो यह साधकों (भक्तों) की गीता-ज्ञान से सम्बन्धित सभी भ्रान्तियों को समूल नष्ट किये बिना नहीं रह सकती। गीता-प्रेमी भक्तों के लिये शायद यह पुस्तक कल्पतरू के समान सिद्ध हो। विशेषतया साधना में आगे बढ़ने की इच्छा रखने वाले साधक इससे विशेष लाभ प्राप्त कर सकते हैं। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये पुस्तक का केवल एक बार पढ़ लेना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् इसका बार-बार अध्ययन अपेक्षित है। आशा है सभी जिज्ञासु, श्रद्धालु, भक्तजन और प्रेमी-पाठक इस पुस्तक से आशातीत लाभ प्राप्त कर सकेंगे और इसे पढ़-सुन कर, गीता-ज्ञान को अपने आचरण में धारण करके (व्यवहार में लाकर के) अपने जीवन को सफल बनायेंगे यानि मोक्ष-रूप शान्ति (जीवन मुक्ति) को प्राप्त होंगे।

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