🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 1 के श्लोक 32-35 | Bhagavad Gita Chapter 1, Shlok 32-35

भगवद गीता अध्याय 1 के श्लोक 32-35

Bhagavad Gita Adhyay 1 Shlok 32-35 में अर्जुन श्रीकृष्ण से कहते हैं कि यदि उनके अपने ही स्वजन युद्ध में मारे जाएंगे, तो उन्हें राज्य, सुख और जीवन से भी कोई प्रयोजन नहीं है। अर्जुन बताता है कि जो लोग इन भौतिक वस्तुओं के कारण प्रिय हैं, वही लोग यदि मारे जाएं तो इन वस्तुओं का कोई मूल्य नहीं रह जाता।
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श्लोक:
किं नो राज्येन गोविन्द किं भोगैर्जीवितेन वा ।
येषामर्थे काङ्क्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च ॥३२॥

त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः ॥३३॥

मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः सम्बन्धिनस्तथा ।
एतान्न हन्तुमिच्छामि नतोऽपि मधुसूदन ॥३४॥

अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ।
निहत्य धार्तराष्ट्रान्नः का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ॥३५॥

Transliteration:
kiṁ no rājyena govinda kiṁ bhogair jīvitena vā
yeṣhām arthe kāṅkṣhitaṁ no rājyaṁ bhogāḥ sukhāni cha || 32 ||

ta ime’vasthitā yuddhe prāṇāṁs tyaktvā dhanāni cha
ācāryāḥ pitarāḥ putrās tathaiva cha pitāmahāḥ || 33 ||

mātulāḥ śhvaśhurāḥ pautrāḥ śhyālāḥ sambandhinas tathā
etān na hantum ichchhāmi ghato’pi madhusūdana || 34 ||

api trailokya-rājyasya hetoḥ kiṁ nu mahī-kṛite
nihatya dhārtarāṣhṭrān naḥ kā prītiḥ syāj janārdana || 35 ||

अर्थ:

हे गोविन्द! हमें राज्य, सुख अथवा इस जीवन से क्या लाभ! क्योंकि जिन सारे लोगों के लिए हम उन्हें चाहते हैं, वे ही इस युद्धभूमि में खड़े हैं।
हे मधुसूदन! जब गुरुजन, पितृगण, पुत्रगण, पितामह, मामा, ससुर, पौत्रगण, साले तथा अन्य सारे सम्बन्धी अपना-अपना धन एवं प्राण देने के लिए तत्पर हैं और मेरे समक्ष खड़े हैं तो फिर मैं इन सबको क्यों मारना चाहूँगा, भले ही वे मुझे क्यों न मार डालें?
हे जनार्दन! मैं इन सबों से लड़ने को तैयार नहीं, भले ही बदले में मुझे तीनों लोक क्यों न मिलते हों- पृथ्वी की तो बात ही छोड़ दें। भला धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें कौन सी प्रसन्नता मिलेगी?

Meaning:
O Govinda, what use to us is a kingdom, pleasures, or even life itself, when those for whom we desire these things are now assembled on the battlefield, ready to give up their lives and wealth?
Teachers, fathers, sons, grandfathers, maternal uncles, fathers-in-law, grandsons, brothers-in-law, and other relatives- all are here. O Madhusudana, I do not wish to kill them, even if they attack me.
O Janardana, even for the sovereignty of the three worlds, let alone this earth, I do not desire to kill the sons of Dhritarashtra. What pleasure will we derive from killing our own kin?

तात्पर्य:

अर्जुन ने भगवान् को “गोविन्द” कहकर सम्बोधित किया, जो गौवों और इन्द्रियों के पालनहार हैं। यहाँ अर्जुन यह संकेत कर रहे हैं कि उन्हें राज्य, सुख या जीवन तभी सुखद लगता यदि उनके प्रियजन जीवित होते। किंतु जब वे ही इस युद्ध में मारे जाएँगे तो यह सब व्यर्थ प्रतीत होता है। अर्जुन इस युद्ध में खड़े गुरुजन, पिता, पुत्र, पितामह, मामा, ससुर, पौत्र, साले और अन्य सम्बन्धियों को देखकर व्यथित हो उठता है। उसका प्रेम, करुणा और मोह उसे युद्ध से रोक रहे हैं।
अर्जुन इस सोच में है कि जब सारे स्वजन युद्ध में मारे जाएंगे तो वह इस वैभव का उपयोग किसके साथ करेगा? यही एक सांसारिक सोच होती है- अपने प्रियजनों के लिए वैभव एकत्रित करना। किंतु आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए तो एक भक्त भगवान् के लिए सारे सुख और वैभव त्याग भी सकता है या उन्हें भगवान् की सेवा में ही प्रयोग करता है।
इस श्लोक में अर्जुन यह भी कहता है कि यदि तीनों लोकों का राज्य भी मिल जाए तो भी वह इन धृतराष्ट्र पुत्रों को मारना नहीं चाहता, क्योंकि ऐसा करने से न तो उसे शांति मिलेगी और न प्रसन्नता। वह भगवान् से आशा करता है कि वे ही कोई मार्ग बताएं।
अर्जुन की यह दयालुता और करुणा, भक्त की विशेषता है। यद्यपि ये कौरव अधर्मी और क्रूर थे, फिर भी अर्जुन उन्हें क्षमा करने को तैयार था। लेकिन भगवान् ऐसे दुष्टों को क्षमा नहीं करते जो उनके भक्तों को कष्ट पहुँचाते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण ने निश्चय किया कि इन अधर्मियों का अंत होगा, और अर्जुन केवल निमित्त बनकर इस कार्य को संपन्न करेगा।

Arjuna expresses deep sorrow and moral conflict. He tells Krishna that all his desires for power, pleasures, and kingdom become meaningless if his loved ones are not alive to share them with. This reflection shows how deeply attached he is to his family and mentors. His compassion and sense of duty as a family member overpower his warrior duties.
However, this compassion, though noble, stands in contrast to the higher spiritual duty. A true devotee acts on God’s will, not personal emotions. Krishna will later guide Arjuna to rise above bodily attachment and understand his divine duty (dharma). At this point, Arjuna’s reluctance is rooted in worldly attachment, but it sets the stage for the deeper spiritual teachings that follow.

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