🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 3 श्लोक 16 | Bhagavad Gita Chapter 3, Shlok 16

भगवद गीता अध्याय 3 श्लोक 16

Bhagavad Gita Adhyay 3 Shlok 16 में श्री कृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति वेदों द्वारा निर्धारित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता, वह पापमय जीवन व्यतीत करता है और केवल इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ में जीवित रहता है।
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श्लोक:
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥

Transliteration:
evaṁ pravartitaṁ chakraṁ nānuvartayatīha yaḥ
aghāyur indriyārāmo moghaṁ pārtha sa jīvati

अर्थ:

हे प्रिय अर्जुन! जो मानव जीवन में इस प्रकार वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ-चक्र का पालन नहीं करता वह निश्चय ही पापमय जीवन व्यतीत करता है। ऐसा व्यक्ति केवल इन्द्रियों की तुष्टि के लिए व्यर्थ ही जीवित रहता है।

Meaning:
O dear Arjuna! He who does not follow the wheel of sacrifice established by the Vedas in human life certainly leads a sinful existence. Such a person lives in vain, solely for the gratification of the senses.

तात्पर्य:

इस श्लोक में भगवान् ने "कठोर परिश्रम करो और इन्द्रियतृप्ति का आनन्द लो" इस सांसारिक विचारधारा का तिरस्कार किया है। अतः जो लोग इस संसार में भोग करना चाहते हैं उन्हें उपर्युक्त यज्ञ-चक्र का अनुसरण करना परमावश्यक है। जो ऐसे विधिविधानों का पालन नहीं करता, अधिकाधिक तिरस्कृत होने के कारण उसका जीवन अत्यन्त संकटपूर्ण रहता है। प्रकृति के नियमानुसार यह मानव शरीर विशेष रूप से आत्म-साक्षात्कार के लिए मिला है, जिसे कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग में से किसी एक विधि से प्राप्त किया जा सकता है। इन योगियों के लिए यज्ञ सम्पन्न करने की कोई आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि ये पाप- पुण्य से परे होते हैं, किन्तु जो लोग इन्द्रियतृप्ति में जुटे हुए हैं उन्हें पूर्वोक्त यज्ञ-चक्र के द्वारा शुद्धिकरण की आवश्यकता रहती है।
कर्म के अनेक भेद होते हैं। जो लोग कृष्णभावनाभावित नहीं हैं वे निश्चय ही विषय परायण होते हैं, अतः उन्हें पुण्य कर्म करने की आवश्यकता होती है। यज्ञ पद्धति इस प्रकार सुनियोजित है कि विषयोन्मुख लोग विषयों के फल में फँसे बिना अपनी इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं। संसार की सम्पन्नता हमारे प्रयासों पर नहीं, अपितु परमेश्वर की पृष्ठभूमि- योजना पर निर्भर है, जिसे देवता सम्पादित करते हैं। अतः वेदों में वर्णित देवताओं को लक्षित करके यज्ञ किये जाते हैं। अप्रत्यक्ष रूप में यह कृष्णभावनामृत का ही अभ्यास रहता है क्योंकि जब कोई इन यज्ञों में दक्षता प्राप्त कर लेता है तो वह अवश्य ही कृष्णभावनाभावित हो जाता है। किन्तु यदि ऐसे यज्ञ करने से कोई कृष्णभावनाभावित नहीं हो पाता तो इसे कोरी आचार संहिता समझना चाहिए। अतः मनुष्यों को चाहिए कि वे आचार संहिता तक ही अपनी प्रगति को सीमित न करें, अपितु उसे पार करके कृष्णभावनामृत को प्राप्त हों।

In this verse, Lord Krishna emphasizes the importance of following the sacrificial wheel established by the Vedas. Those who do not follow this system live a life devoted solely to sensual pleasures, which is a wasted existence. The purpose of human life is spiritual progress through the practice of Karma Yoga, Jnana Yoga, or Bhakti Yoga. While those who are devoted to material desires need to follow the prescribed sacrificial actions, those who have transcended materialism are free from the need for such rituals. The Vedic sacrifices are designed to purify the mind and soul and can eventually lead to the ultimate realization of Krishna consciousness. However, if one does not approach the ritual with the right mindset, it remains mere external practice without deeper spiritual significance. Therefore, human beings should aim to transcend mere ritualistic practices and seek Krishna consciousness.

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