यहाँ भगवद गीता के अध्याय 1 का श्लोक 1 का विस्तार से अनुवाद है:
धृतराष्ट्र उवाच
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः ।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय ॥१॥
कुरुक्षेत्र में धृतराष्ट्र का अर्थ है 'धृतराष्ट्र का क्षेत्र'। इस क्षेत्र में समवेता युयुत्सवः का अर्थ है 'युद्धक्षेत्र में एकत्र संग्राम की इच्छा रखने वाले'। मामकाः पाण्डवाश्चैव का अर्थ है 'मेरे पुत्र और पाण्डु के पुत्र भी'। और किमकुर्वत सञ्जय का अर्थ है 'सञ्जय, उन्होंने क्या किया?'
यह श्लोक भगवद गीता का पहला श्लोक है जो महाभारत के युद्ध के भीष्म पर्व के आरंभ में है। इसमें कुरुक्षेत्र के युद्धक्षेत्र में संजय के माध्यम से धृतराष्ट्र का चिन्हांकित होना और उनकी चिंता का विवरण है।
धृतराष्ट्र ने पूछा- “हे संजय ! धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में एकत्र युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?”
अज्ञानरूपी धृतराष्ट्र और संयमरूपी संजय। अज्ञान मन के अन्तराल में रहता है। अज्ञान से आवृत्त मन धृतराष्ट्र जन्मान्ध है; किन्तु संयमरूपी संजय के माध्यम से वह देखता है, सुनता है और समझता है कि परमात्मा ही सत्य है, फिर भी जब तक इससे उत्पन्न मोहरूपी दुर्योधन जीवित है इसकी दृष्टि सदैव कौरवों पर रहती है, विकारों पर ही रहती है।
शरीर एक क्षेत्र है। जब हृदय- देश में दैवी सम्पत्ति का बाहुल्य होता है तो यह शरीर धर्मक्षेत्र बन जाता है और जब इसमें आसुरी सम्पत्ति का बाहुल्य होता है तो यह शरीर कुरुक्षेत्र बन जाता है। 'कुरु' अर्थात् करो- यह शब्द आदेशात्मक है। श्रीकृष्ण कहते हैं- प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों द्वारा परवश होकर मनुष्य कर्म करता है। वह क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता। गुण उससे करा लेते हैं। सो जाने पर भी कर्म बन्द नहीं होता, वह भी स्वस्थ शरीर की आवश्यक खुराक मात्र है। तीनों गुण मनुष्य को देवता से कीटपर्यन्त शरीरों में ही बाँधते हैं। जब तक प्रकृति और प्रकृति से उत्पन्न गुण जीवित हैं, तब तक 'कुरु' लगा रहेगा। अतः जन्म - मृत्युवाला क्षेत्र, विकारोंवाला क्षेत्र कुरुक्षेत्र है और परमधर्म परमात्मा में प्रवेश दिलानेवाली पुण्यमयी प्रवृत्तियों (पाण्डवों) का क्षेत्र धर्मक्षेत्र है।
पुरातत्त्वविद् पंजाब में, काशी- प्रयाग के मध्य तथा अनेकानेक स्थलों पर कुरुक्षेत्र की शोध में लगे हैं; किन्तु गीताकार ने स्वयं बताया है कि जिस क्षेत्र में यह युद्ध हुआ, वह कहाँ है। 'इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते। ' (अ० १३/१) “अर्जुन! यह शरीर ही क्षेत्र है और जो इसको जानता है, इसका पार पा लेता है, वह क्षेत्रज्ञ है।" आगे उन्होंने क्षेत्र का विस्तार बताया, जिसमें दस इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहंकार, पाँचों विकार और तीनों गुणों का वर्णन है। शरीर ही क्षेत्र है, एक अखाड़ा है। इसमें लड़नेवाली प्रवृत्तियाँ दो हैं- 'दैवी सम्पद्' और 'आसुरी सम्पद्', 'पाण्डु की सन्तान' और 'धृतराष्ट्र की सन्तान', 'सजातीय और विजातीय प्रवृत्तियाँ।
अनुभवी महापुरुष की शरण जाने पर इन दोनों प्रवृत्तियों में संघर्ष का सूत्रपात होता है। यह क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का संघर्ष है और यही वास्तविक युद्ध है। विश्वयुद्धों से इतिहास भरा पड़ा है; किन्तु उनमें जीतनेवालों को भी शाश्वत विजय नहीं मिलती। ये तो आपसी बदले हैं। प्रकृति का सर्वथा शमन करके प्रकृति से परे की सत्ता का दिग्दर्शन करना और उसमें प्रवेश पाना ही वास्तविक विजय है। यही एक ऐसी विजय है, जिसके पीछे हार नहीं है। यही मुक्ति है, जिसके पीछे जन्म-मृत्यु का बन्धन नहीं है।
इस प्रकार अज्ञान से आच्छादित प्रत्येक मन संयम के द्वारा जानता है कि क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के युद्ध में क्या हुआ ? अब जैसा जिसके संयम का उत्थान है, वैसे-वैसे उसे दृष्टि आती जायेगी।
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