🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवत गीता अध्याय 1 का श्लोक 2 | bhagwat geeta adhyay 1 shlok 2

भगवत गीता अध्याय 1 का श्लोक 2

यहाँ भगवद गीता के अध्याय 1 का श्लोक 2 का विस्तार से अनुवाद है:
bhagwat-geeta-adhyay-1-shlok-2
सञ्जय उवाच
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥२॥

अनुवाद

उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूहरचनायुक्त पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा-

टीका

द्वैत का आचरण ही 'द्रोणाचार्य' है। जब जानकारी हो जाती है कि हम परमात्मा से अलग हो गये हैं (यही द्वैत का भान है), वहाँ उसकी प्राप्ति के लिये तड़प पैदा हो जाती है, तभी हम गुरु की तलाश में निकलते हैं। दोनों प्रवृत्तियों के बीच यही प्राथमिक गुरु है; यद्यपि बाद के सद्गुरु योगेश्वर श्रीकृष्ण होंगे, जो योग की स्थितिवाले होंगे।
राजा दुर्योधन आचार्य के पास जाता है। मोहरूपी दुर्योधन। मोह सम्पूर्ण व्याधियों का मूल है, राजा है। दुर्योधन- दुर् अर्थात् दूषित, यो धन अर्थात् वह धन। आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है। उसमें जो दोष उत्पन्न करता है, वह है मोह। यही प्रकृति की ओर खींचता है और वास्तविक जानकारी के लिये प्रेरणा भी प्रदान करता है। मोह है तभी तक पूछने का प्रश्न भी है, अन्यथा सभी पूर्ण ही हैं।

एक टिप्पणी भेजें

Post a Comment (0)

और नया पुराने