🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 4 श्लोक 25 | Bhagavad Gita Chapter 4 Shlok 25

भगवद गीता अध्याय 4 श्लोक 25

Bhagavad Gita Adhyay 4 Shlok 25 में बताया गया है कि कुछ योगी देवताओं की पूजा के लिए विभिन्न यज्ञ करते हैं और कुछ परमब्रह्म के निराकार रूप में यज्ञ करते हैं।
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श्लोक:
दैवमेवापरे यज्ञं योगिनः पर्युपासते ।
ब्रह्माग्नावपरे यज्ञं यज्ञेनैवोपजुह्वति ॥२५॥

Transliteration:
daivam evāpare yajñaṁ yoginaḥ paryupāsate
brahmāgnāvapare yajñaṁ yajñenaivopajuhvati

अर्थ:

कुछ योगी विभिन्न प्रकार के यज्ञों द्वारा देवताओं की भलीभाँति पूजा करते हैं और कुछ परब्रह्म रूपी अग्नि में आहुति डालते हैं।

Meaning:
Some yogis worship various deities through different sacrifices, while others offer sacrifices in the fire of the Supreme Brahman.

तात्पर्य:

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जो व्यक्ति कृष्णभावनाभावित होकर अपना कर्म करने में लीन रहता है वह पूर्ण योगी है, किन्तु ऐसे भी मनुष्य हैं जो देवताओं की पूजा करने के लिए यज्ञ करते हैं और कुछ परम ब्रह्म या परमेश्वर के निराकार स्वरूप के लिए यज्ञ करते हैं। इस तरह यज्ञ की अनेक कोटियाँ हैं। विभिन्न यज्ञकर्ताओं द्वारा सम्पन्न यज्ञ की ये कोटियाँ केवल बाह्य वर्गीकरण हैं। वस्तुतः यज्ञ का अर्थ है- भगवान् विष्णु को प्रसन्न करना और विष्णु को यज्ञ भी कहते हैं। विभिन्न प्रकार के यज्ञों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है: सांसारिक द्रव्यों के लिए यज्ञ (द्रव्ययज्ञ) तथा दिव्यज्ञान के लिए किये गये यज्ञ (ज्ञानयज्ञ)। जो कृष्णभावनाभावित हैं, उनकी सारी भौतिक सम्पदा परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए होती है, किन्तु जो किसी क्षणिक भौतिक सुख की कामना करते हैं, वे इन्द्र, सूर्य आदि देवताओं को प्रसन्न करने के लिए अपनी भौतिक सम्पदा की आहुति देते हैं। अन्य लोग, जो निर्विशेषवादी हैं, वे निराकार ब्रह्म में अपने स्वरूप को स्वाहा कर देते हैं। देवतागण ऐसी शक्तिमान् जीवात्माएँ हैं, जिन्हें ब्रह्माण्ड को ऊष्मा प्रदान करने, जल देने तथा प्रकाशित करने जैसे भौतिक कार्यों की देखरेख के लिए परमेश्वर ने नियुक्त किया है।
जो लोग भौतिक लाभ चाहते हैं, वे वैदिक अनुष्ठानों के अनुसार विविध देवताओं की पूजा करते हैं। ऐसे लोग बह्वीश्वरवादी कहलाते हैं। किन्तु जो लोग परम सत्य के निर्गुण स्वरूप की पूजा करते हैं और देवताओं के स्वरूपों को अनित्य मानते हैं, वे ब्रह्म की अग्नि में अपने आप की ही आहुति दे देते हैं, और इस प्रकार ब्रह्म के अस्तित्व में अपने अस्तित्व को समाप्त कर देते हैं। ऐसे निर्विशेषवादी परमेश्वर की दिव्यप्रकृति को समझने के लिए दार्शनिक चिन्तन में अपना सारा समय लगाते हैं। दूसरे शब्दों में, सकामकर्मी भौतिक सुख के लिए अपनी भौतिक सम्पत्ति का यजन करते हैं, किन्तु निर्विशेषवादी परब्रह्म में लीन होने के लिए अपनी भौतिक उपाधियों का यजन करते हैं। निर्विशेषवादी के लिए यज्ञाग्नि ही परब्रह्म है, जिसमें आत्मस्वरूप का विलय ही आहुति है। किन्तु अर्जुन जैसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए सर्वस्व अर्पित कर देता है। इस तरह उसकी सारी भौतिक सम्पत्ति के साथ-साथ आत्मस्वरूप भी कृष्ण के लिए अर्पित हो जाता है। वह परम योगी है, किन्तु उसका पृथक् स्वरूप नष्ट नहीं होता।

This verse explains how some yogis worship various deities through different sacrifices, while others offer sacrifice to the formless Supreme Brahman. The essence of yajna is to please Lord Vishnu, who is also called yajna. There are two categories of yajnas: one for material things and another for spiritual knowledge. Those absorbed in Krishna consciousness dedicate all their material wealth to please the Supreme, while others seeking temporary material benefits worship various gods like Indra and Surya. Some formless devotees merge themselves in the fire of Brahman, thus annihilating their separate existence. Such impersonalists devote themselves philosophically to understand the divine nature of the Supreme. Those seeking material gains perform yajnas for worldly benefits, while impersonalists perform yajna to merge in the Supreme. But a devotee like Arjuna surrenders everything to Krishna with full devotion, including the self, without losing his separate identity.

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