🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 13 श्लोक 23 | Bhagavad Gita Chapter 13 Shlok 23

भगवद गीता अध्याय 13 श्लोक 23

Bhagavad Gita Adhyay 13 Shlok 23 में बताया गया है कि इस शरीर में परमात्मा भी विद्यमान हैं, जो साक्षी, अनुमति देने वाले, पालक और परम स्वामी हैं। वे जीवात्मा से भिन्न हैं और परमेश्वर का ही स्वरूप हैं।
bhagavad-gita-chapter-13-shlok-23
श्लोक:
उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ॥२३॥

Transliteration:
upadraṣhṭānumantā cha bhartā bhoktā maheśhvaraḥ
paramātmeti chāpy ukto dehe ’smin puruṣhaḥ paraḥ

अर्थ:

तो भी इस शरीर में एक अन्य दिव्य भोक्ता है, जो ईश्वर है, परम स्वामी है और साक्षी तथा अनुमति देने वाले के रूप में विद्यमान है और जो परमात्मा कहलाता है।

Meaning:
Yet in this body there is another, a transcendental enjoyer, the Lord, the supreme owner, who exists as the overseer and permitter, and who is known as the Paramatma, the Supreme Soul.

तात्पर्य:

यहाँ पर कहा गया है कि जीवात्मा के साथ निरन्तर रहने वाला परमात्मा, परमेश्वर का प्रतिनिधि है। वह सामान्य जीव नहीं है। अद्वैतवादी चिन्तक शरीर के ज्ञाता को एक मानते हैं, अतः उनके अनुसार परमात्मा तथा जीवात्मा में कोई अन्तर नहीं है। इसका स्पष्टीकरण करने के लिए भगवान् कहते हैं कि वे प्रत्येक शरीर में परमात्मा-रूप में विद्यमान हैं। वे जीवात्मा से भिन्न हैं, पर हैं, दिव्य हैं।
जीवात्मा किसी विशेष क्षेत्र के कार्यों को भोगता है, लेकिन परमात्मा किसी सीमित भोक्ता के रूप में या शारीरिक कर्मों में भाग लेने वाले के रूप में विद्यमान नहीं रहते, अपितु वे साक्षी, अनुमतिदाता तथा परम भोक्ता के रूप में स्थित रहते हैं। उनका नाम परमात्मा है, आत्मा नहीं। वे दिव्य हैं।
यह बिल्कुल स्पष्ट है कि आत्मा तथा परमात्मा भिन्न-भिन्न हैं। परमात्मा के हाथ-पैर सर्वत्र रहते हैं, लेकिन जीवात्मा के ऐसा नहीं होता। चूँकि परमात्मा परमेश्वर हैं, अतः वे अन्दर से जीव की भौतिक भोग की आकांक्षा पूर्ति की अनुमति देते हैं। परमात्मा की अनुमति के बिना जीवात्मा कुछ भी नहीं कर सकता। जीव भुक्त है और भगवान् भोक्ता या पालक हैं। जीव अनन्त हैं और भगवान् उन सबमें मित्र-रूप में निवास करते हैं।
प्रत्येक जीव परमेश्वर का नित्य अंश है और दोनों मित्र रूप में सम्बन्धित हैं। लेकिन जीव में परमेश्वर के आदेश को अस्वीकार करने और प्रकृति पर प्रभुत्व जताने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसी कारण वह परमेश्वर की तटस्था शक्ति कहलाता है। जीव या तो भौतिक शक्ति में या आध्यात्मिक शक्ति में स्थित हो सकता है।
जब तक वह भौतिक शक्ति द्वारा बद्ध रहता है, तब तक परमेश्वर मित्र रूप में परमात्मा की तरह उसके भीतर रहते हैं, जिससे उसे आध्यात्मिक शक्ति में वापस ले जा सकें। भगवान् सदैव उसे आध्यात्मिक शक्ति में वापस ले जाने के लिए उत्सुक रहते हैं, लेकिन जीव अपनी अल्प स्वतन्त्रता के कारण आध्यात्मिक संगति को ठुकराता रहता है। स्वतन्त्रता का यह दुरुपयोग ही उसके भौतिक संघर्ष का कारण है।
अतः भगवान् निरन्तर बाहर तथा भीतर से आदेश देते रहते हैं। बाहर से वे भगवद्गीता के रूप में उपदेश देते हैं और भीतर से वे जीव को यह विश्वास दिलाते हैं कि भौतिक क्षेत्र में उसके कार्यकलाप वास्तविक सुख के लिए अनुकूल नहीं हैं। उनका वचन है – "इसे त्याग दो और मेरे प्रति श्रद्धा करो, तभी तुम सुखी होगे।"
इस प्रकार जो बुद्धिमान व्यक्ति परमात्मा में अथवा भगवान् में श्रद्धा रखता है, वह सच्चिदानन्दमय जीवन की ओर प्रगति करने लगता है।

In this verse, Krishna explains the presence of Paramatma within every body. The Paramatma is not the same as the jivatma. He is divine, supreme, and distinct. While the jivatma experiences the results of actions, the Paramatma remains as the overseer, permitter, and ultimate maintainer.
The soul is limited, but the Paramatma, being the Supreme Lord, is unlimited and all-pervading. Without His sanction, the soul cannot act. The Paramatma accompanies the soul as a friend and guide, constantly trying to lead him back to the spiritual energy.
Due to misuse of his minute independence, the soul rejects this divine guidance and remains entangled in material struggles. The Lord gives instruction externally as the Bhagavad Gita and internally as Paramatma, always guiding the soul to surrender and attain real happiness.
Thus, one who places faith in the Paramatma, the Supreme Lord, progresses toward an eternal life full of knowledge and bliss.

एक टिप्पणी भेजें

Post a Comment (0)

और नया पुराने