Bhagavad Gita Adhyay 18 Shlok 47 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि अपने स्वधर्म का पालन करना, चाहे उसमें त्रुटि क्यों न हो, दूसरों के धर्म का पालन करने से श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव से किए गए कर्म पाप का कारण नहीं बनते।
श्लोक:
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् ॥४७॥
Transliteration:
śhreyān swa-dharmo viguṇaḥ para-dharmāt sv-anuṣhṭhitāt
svabhāva-niyataṁ karma kurvan nāpnoti kilbiṣham
अपने वृत्तिपरक कार्य को करना, चाहे वह कितना ही त्रुटिपूर्ण ढंग से क्यों न किया जाए, अन्य किसी के कार्य को स्वीकार करने और अच्छी प्रकार से करने की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ है। अपने स्वभाव के अनुसार निर्दिष्ट कर्म कभी भी पाप से प्रभावित नहीं होते।
Meaning:
It is far better to perform one’s own duty, even imperfectly, than to perform another’s duty perfectly. The work that is naturally prescribed for one’s own nature does not bring sin.
भगवद्गीता में मनुष्य के वृत्तिपरक कार्य (स्वधर्म) का निर्देश है। जैसा कि पूर्ववर्ती श्लोकों में वर्णन हुआ है, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र के कर्तव्य उनके विशेष प्राकृतिक गुणों (स्वभाव) के द्वारा निर्दिष्ट होते हैं। किसी को दूसरे के कार्य का अनुकरण नहीं करना चाहिए।
जो व्यक्ति स्वभाव से शूद्र के द्वारा किये जाने वाले कर्म के प्रति आकृष्ट हो, उसे अपने आपको झूठे ही ब्राह्मण नहीं कहना चाहिए, भले ही वह ब्राह्मण कुल में क्यों न उत्पन्न हुआ हो। इस तरह प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करे; कोई भी कर्म निकृष्ट (गर्हित) नहीं है, यदि वह परमेश्वर की सेवा के लिए किया जाय।
ब्राह्मण का वृत्तिपरक कार्य निश्चित रूप से सात्त्विक है, लेकिन यदि कोई मनुष्य स्वभाव से सात्त्विक नहीं है, तो उसे ब्राह्मण के वृत्तिपरक कार्य (धर्म) का अनुकरण नहीं करना चाहिए। क्षत्रिय या प्रशासक के लिए अनेक गर्हित बातें हैं - क्षत्रिय को शत्रुओं का वध करने के लिए हिंसक होना पड़ता है और कभी-कभी कूटनीति में झूठ भी बोलना पड़ता है। ऐसी हिंसा तथा कपट राजनीतिक मामलों में चलता है, लेकिन क्षत्रिय से यह आशा नहीं की जाती कि वह अपने वृत्तिपरक कर्तव्य त्याग कर ब्राह्मण के कार्य करने लगे।
मनुष्य को चाहिए कि परमेश्वर को प्रसन्न करने के लिए कार्य करे। उदाहरणार्थ, अर्जुन क्षत्रिय था। वह दूसरे पक्ष से युद्ध करने से बच रहा था। लेकिन यदि ऐसा युद्ध भगवान् कृष्ण के लिए करना पड़े, तो पतन से घबड़ाने की आवश्यकता नहीं है।
कभी-कभी व्यापारिक क्षेत्र में भी व्यापारी को लाभ कमाने के लिए झूठ बोलना पड़ता है। यदि वह ऐसा नहीं करे तो उसे लाभ नहीं हो सकता। कभी-कभी व्यापारी कहता है, "अरे मेरे ग्राहक भाई! मैं आपसे कोई लाभ नहीं ले रहा।" लेकिन हमें यह समझना चाहिए कि व्यापारी बिना लाभ के जीवित नहीं रह सकता। अतएव यदि व्यापारी यह कहता है कि वह कोई लाभ नहीं ले रहा है तो इसे एक सरल झूठ समझना चाहिए। लेकिन व्यापारी को यह नहीं सोचना चाहिए कि चूँकि वह ऐसे कार्य में लगा है, जिसमें झूठ बोलना आवश्यक है, अतएव उसे इस व्यवसाय (वैश्य कर्म) को त्यागकर ब्राह्मण की वृत्ति ग्रहण करनी चाहिए।
इसकी शास्त्रों द्वारा संस्तुति नहीं की गई। चाहे कोई क्षत्रिय हो, वैश्य हो या शूद्र, यदि वह इस कार्य से भगवान् की सेवा करता है, तो कोई आपत्ति नहीं है। कभी-कभी विभिन्न यज्ञों का सम्पादन करते समय ब्राह्मणों को भी पशुओं की हत्या करनी होती है, क्योंकि इन अनुष्ठानों में पशु की बलि देनी होती है। इसी प्रकार यदि क्षत्रिय अपने कार्य में लगा रहकर शत्रु का वध करता है, तो उस पर पाप नहीं चढ़ता।
तृतीय अध्याय में इन बातों की स्पष्ट एवं विस्तृत व्याख्या हो चुकी है। हर मनुष्य को यज्ञ के लिए अथवा भगवान् विष्णु के लिए कार्य करना चाहिए। निजी इन्द्रियतृप्ति के लिए किया गया कोई भी कार्य बन्धन का कारण है।
निष्कर्ष यह निकला कि मनुष्य को चाहिए कि अपने द्वारा अर्जित विशेष गुण के अनुसार कार्य में प्रवृत्त हो और परमेश्वर की सेवा करने के लिए ही कार्य करने का निश्चय करे।
The Gita teaches that one should perform their prescribed duty (svadharma) according to their nature. Duties of the four varnas - brāhmaṇas, kṣatriyas, vaiśyas, and śūdras - are determined by one’s innate qualities. One should not imitate another’s occupation.
Even if one’s work seems imperfect, performing it as service to God is superior to perfectly executing someone else’s duty. Every action, if offered to God, becomes pure.
A kṣatriya’s duty may involve violence and strategy; a merchant may need to use tact in trade; and a brāhmaṇa may perform animal sacrifices in rituals - none of these are sinful if done for the satisfaction of the Supreme Lord.
The conclusion is that one should work according to their nature, but dedicate the results to the service of the Supreme Lord. This leads to perfection and liberation.
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