🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 18 श्लोक 46 | Bhagavad Gita Chapter 18 Shlok 46

भगवद गीता अध्याय 18 श्लोक 46

Bhagavad Gita Adhyay 18 Shlok 46 में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति अपने कर्मों को ईश्वर की उपासना के रूप में करता है, वह जीवन में सिद्धि प्राप्त करता है। सभी जीव परमेश्वर से उत्पन्न हैं और उन्हीं में स्थित हैं।
bhagavad-gita-chapter-18-shlok-46
श्लोक:
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥४६॥

Transliteration:
yataḥ pravṛittir bhūtānāṁ yena sarvam idaṁ tatam
sva-karmaṇā tam abhyarchya siddhiṁ vindati mānavaḥ

अर्थ:

जो सभी प्राणियों का उद्गम है और सर्वव्यापी है, उस भगवान् की उपासना करके मनुष्य अपना कर्म करते हुए पूर्णता प्राप्त कर सकता है।

Meaning:
By worshiping the Supreme Lord, from whom all beings originate and by whom the whole universe is pervaded, a person attains perfection through the performance of their own prescribed duties.

तात्पर्य:

जैसा कि पन्द्रहवें अध्याय में बताया जा चुका है, सारे जीव परमेश्वर के भिन्नांश हैं। इस प्रकार परमेश्वर ही सभी जीवों के आदि हैं। वेदान्त सूत्र में इसकी पुष्टि हुई है- जन्माद्यस्य यतः । अतएव परमेश्वर प्रत्येक जीव के जीवन के उद्गम हैं। जैसा कि भगवद्गीता के सातवें अध्याय में कहा गया है, परमेश्वर अपनी परा तथा अपरा, इन दो शक्तियों के द्वारा सर्वव्यापी हैं। अतएव मनुष्य को चाहिए कि उनकी शक्तियों सहित भगवान् की पूजा करे। सामान्यतया वैष्णवजन परमेश्वर की पूजा उनकी अन्तरंगा शक्ति समेत करते हैं। उनकी बहिरंगा शक्ति उनकी अन्तरंगा शक्ति का विकृत प्रतिबिम्ब है। बहिरंगा शक्ति पृष्ठभूमि है, लेकिन परमेश्वर परमात्मा रूप में पूर्णांश का विस्तार करके सर्वत्र स्थित हैं। वे सर्वत्र समस्त देवताओं, मनुष्यों और पशुओं के परमात्मा हैं। अतएव मनुष्य को यह जानना चाहिए कि परमेश्वर का भिन्नांश होने के कारण उसका कर्तव्य है कि वह भगवान् की सेवा करे। प्रत्येक व्यक्ति को कृष्णभावनामृत में भगवान् की भक्ति करनी चाहिए। इस श्लोक में इसी की संस्तुति की गई है।
प्रत्येक व्यक्ति को सोचना चाहिए कि इन्द्रियों के स्वामी हृषीकेश द्वारा वह विशेष कर्म में प्रवृत्त किया गया है। अतएव जो जिस कर्म में लगा है, उसी के फल के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण को पूजना चाहिए। यदि वह इस प्रकार से कृष्णभावनामय हो कर सोचता है, तो भगवत्कृपा से वह पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेता है। यही जीवन की सिद्धि है।
भगवान् ने भगवद्गीता में (१२.७) कहा है- तेषामहं समुद्धर्ता। परमेश्वर स्वयं ऐसे भक्त का उद्धार करते हैं। यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है। कोई चाहे जिस वृत्तिपरक कार्य में लगा हो, यदि वह परमेश्वर की सेवा करता है, तो उसे सर्वोच्च सिद्धि प्राप्त होती है।

As explained in Chapter 15, all living beings are parts and parcels of the Supreme Lord. Thus, the Lord is the origin of all beings. The Vedanta-sutra confirms this - janmādyasya yataḥ - that the Supreme is the source of everything. The Lord pervades all existence through His superior and inferior energies.
Hence, one should worship the Supreme Lord, along with His energies. The devotees (Vaishnavas) worship Him along with His internal potency, while His external potency is but a reflection of the internal one. As the Supersoul, the Lord exists within all - in gods, humans, and animals alike. Therefore, being His fragmental part, every person’s duty is to serve Him through their own work.
When one performs their occupational duty as an offering to Lord Krishna, one gradually becomes fully Krishna conscious. Such service leads to perfection and liberation. The Lord Himself promises in Gita (12.7): teṣām ahaṁ samuddhartā - “I personally deliver My devotees from the ocean of birth and death.”

एक टिप्पणी भेजें

Post a Comment (0)

और नया पुराने