Bhagavad Gita Adhyay 2 Shlok 27 में भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म और मृत्यु के अपरिहार्य चक्र के बारे में बताया है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है, और मृत्यु के बाद पुनः जन्म भी निश्चित है। इसलिए, अर्जुन को अपने कर्तव्य का पालन करते हुए शोक नहीं करना चाहिए।
श्लोक:
जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च।
तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥२७॥
Transliteration:
jātasya hi dhruvo mṛityur dhruvaṁ janma mṛitasya cha
tasmād aparihārye ’rthe na tvaṁ śhochitum arhasi
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है और मृत्यु के पश्चात् पुनर्जन्म भी निश्चित है। अत: अपने अपरिहार्य कर्तव्यपालन में तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए।
Meaning:
For one who is born, death is certain, and after death, rebirth is also certain. Therefore, in the performance of your inevitable duty, you should not mourn.
मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार जन्म ग्रहण करना होता है और एक कर्म-अवधि समाप्त होने पर उसे मरना होता है, जिससे वह दूसरा जन्म ले सके। इस प्रकार मुक्ति प्राप्त किये बिना ही जन्म-मृत्यु का यह चक्र चलता रहता है। जन्म-मरण के इस चक्र से वृथा हत्या, वध तथा युद्ध का समर्थन नहीं होता। किन्तु मानव समाज में शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा तथा युद्ध अपरिहार्य हैं।
कुरुक्षेत्र का युद्ध भगवान् की इच्छा होने के कारण अपरिहार्य था और सत्य के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का धर्म है। अतः अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु से भयभीत या शोकाकुल क्यों था? वह विधि (कानून) को भंग नहीं करना चाहता था क्योंकि ऐसा करने पर उसे उन पापकर्मों के फल भोगने पड़ेंगे जिनसे वह अत्यन्त भयभीत था। अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह स्वजनों की मृत्यु को रोक नहीं सकता था और यदि वह अनुचित कर्तव्य पथ का चुनाव करे, तो उसे नीचे गिरना होगा।
The essence of this verse emphasizes the cyclical nature of birth and death. It points out that death is an inevitable part of life, and after death, rebirth follows. This inevitable cycle of life and death should not cause sorrow or grief, especially when one is fulfilling their prescribed duty. The reference to the Kurukshetra war highlights that, despite the sorrow of losing loved ones, Arjuna's duty as a warrior must be performed, as it is aligned with the divine will.
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