Bhagavad Gita Adhyay 2 Shlok 39 में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि यह ज्ञान (सांख्य) उन्होंने विस्तार से बताया है, अब निष्काम भाव से कर्म करने के बारे में योग (योग) की शिक्षा दे रहे हैं, जिससे अर्जुन कर्म के बन्धन से मुक्त हो सकते हैं।
श्लोक:
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
बुद्धया युक्तो यया पार्थ कर्मबन्धं प्रहास्यसि ॥३९॥
Transliteration:
eṣhā te ’bhihitā sānkhye buddhir yoge tvimāṁ śhṛiṇu
buddhyā yukto yayā pārtha karma-bandhaṁ prahāsyasi
यहाँ मैंने वैश्लेषिक अध्ययन (सांख्य) द्वारा इस ज्ञान का वर्णन किया है। अब निष्काम भाव से कर्म करना बता रहा हूँ, उसे सुनो। हे पृथापुत्र! तुम यदि ऐसे ज्ञान से कर्म करोगे तो तुम कर्मों के बन्धन से अपने को मुक्त कर सकते हो।
Meaning:
Here, I have explained this knowledge through analytical study (Sankhya). Now, I am telling you to perform action with detachment (Yoga). O son of Pritha (Arjuna), if you perform your duties in this way, you will free yourself from the bondage of actions.
वैदिक कोश निरुक्ति के अनुसार सांख्य का अर्थ है-विस्तार से वस्तुओं का वर्णन करने वाला तथा सांख्य उस दर्शन के लिए प्रयुक्त मिलता है जो आत्मा की वास्तविक प्रकृति का वर्णन करता है। और योग का अर्थ है- इन्द्रियों का निग्रह। अर्जुन का युद्ध न करने का प्रस्ताव इन्द्रियतृप्ति पर आधारित था। वह अपने प्रधान कर्तव्य को भुलाकर युद्ध से दूर रहना चाहता था क्योंकि उसने यह सोचा कि धृतराष्ट्र के पुत्रों अर्थात् अपने बन्धु बान्धवों को परास्त करके राज्यभोग करने की अपेक्षा अपने सम्बन्धियों तथा स्वजनों को न मारकर वह अधिक सुखी रहेगा। दोनों ही प्रकार से मूल सिद्धान्त तो इन्द्रियतृप्ति था। उन्हें जीतने से प्राप्त होने वाला सुख तथा स्वजनों को जीवित देखने का सुख ये दोनों इन्द्रियतृप्ति के धरातल पर एक हैं, क्योंकि इससे बुद्धि तथा कर्तव्य दोनों का अन्त हो जाता है।
अतः कृष्ण ने अर्जुन को बताना चाहा कि वह अपने पितामह के शरीर का वध करके उनके आत्मा को नहीं मारेगा। उन्होंने यह बताया कि उनके सहित सारे जीव शाश्वत प्राणी हैं, वे भूतकाल में प्राणी थे, वर्तमान में भी प्राणी रूप में हैं और भविष्य में भी प्राणी बने रहेंगे क्योंकि हम सब शाश्वत आत्मा हैं। हम विभिन्न प्रकार से केवल अपना शारीरिक परिधान (वस्त्र) बदलते रहते हैं और इस भौतिक वस्त्र के बन्धन से मुक्ति के बाद भी हमारी पृथक् सत्ता बनी रहती है। भगवान् कृष्ण द्वारा आत्मा तथा शरीर का अत्यन्त विशद् वैश्लेषिक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है और निरुक्ति कोश की शब्दावली में इस विशद् अध्ययन को यहाँ सांख्य कहा गया है। इस सांख्य का नास्तिक कपिल के सांख्य दर्शन से कोई सरोकार नहीं है। इस नास्तिक - कपिल के सांख्य दर्शन से बहुत पहले भगवान् कृष्ण के अवतार भगवान् कपिल ने अपनी माता देवहूति के समक्ष श्रीमद्भागवत में वास्तविक सांख्य दर्शन पर प्रवचन किया था। उन्होंने स्पष्ट बताया है कि पुरुष या परमेश्वर क्रियाशील हैं और वे प्रकृति पर दृष्टिपात करके सृष्टि की उत्पत्ति करते हैं। इसको वेदों ने तथा गीता ने स्वीकार किया है। वेदों में वर्णन मिलता है कि भगवान् ने प्रकृति पर दृष्टिपात किया और उसमें आणविक जीवात्माएँ प्रविष्ट कर दीं। ये सारे जीव भौतिक जगत् में इन्द्रियतृप्ति के लिए कर्म करते रहते हैं और माया के वशीभूत होकर अपने को भोक्ता मानते रहते हैं। इस मानसिकता की चरम सीमा भगवान् के साथ सायुज्य प्राप्त करना है। यह माया अथवा इन्द्रियतृप्तिजन्य मोह का अन्तिम पाश है और अनेकानेक जन्मों तक इस तरह इन्द्रियतृप्ति करते हुए कोई महात्मा भगवान् कृष्ण यानी वासुदेव की शरण में जाता है जिससे परम सत्य की खोज पूरी होती है।
According to the Vedic dictionary (Nirukti), Sankhya refers to the philosophy that elaborates on the nature of the soul. Sankhya is often associated with a detailed analysis of the soul’s true essence. On the other hand, Yoga signifies the control of the senses. Arjuna’s refusal to engage in the war is rooted in sensory indulgence. He wanted to avoid the war by neglecting his primary duty, thinking that by not defeating his cousins and brothers (the Kauravas), he would experience greater peace by not killing his relatives. Both outcomes the joy of victory and the joy of seeing his relatives alive are based on sensory gratification, which ultimately leads to the end of both reason and duty. Hence, Krishna wanted Arjuna to understand that by killing his grandfather Bhishma, he would not destroy his soul but rather help him in attaining liberation. All living beings, including Bhishma, are eternal souls; they change bodies, but the soul remains unaffected. Krishna elaborates on this in the Bhagavad Gita by explaining the eternal nature of the soul. This knowledge is referred to as Sankhya, distinct from the atheistic Sankhya philosophy proposed by Kapila, which is much earlier than the atheistic school. In Bhagavad Gita, Krishna emphasizes that the soul is immortal, unaffected by physical death. This understanding helps a soul transcend the cycle of birth and death, attaining unity with the Supreme.
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