🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक 47 | Bhagavad Gita Chapter 2, Shlok 47

भगवद गीता अध्याय 2 श्लोक 47

Bhagavad Gita Adhyay 2 Shlok 47 में श्री कृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि कर्म करने का अधिकार तो है, परंतु उसके फल पर अधिकार नहीं है और फल के प्रति आसक्ति से बचने की आवश्यकता है।
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श्लोक:
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥४७॥

Transliteration:
karmaṇy-evādhikāras te mā phaleṣhu kadāchana
mā karma-phala-hetur bhūr mā te saṅgo ’stvakarmaṇi

अर्थ:

तुम्हें अपना कर्म (कर्तव्य) करने का अधिकार है, किन्तु कर्म के फलों के तुम अधिकारी नहीं हो। तुम न तो कभी अपने आपको अपने कर्मों के फलों का कारण मानो, न ही कर्म न करने में कभी आसक्त होओ।

Meaning:
You have the right to perform your duties (actions), but you have no right to the results of those actions. Never consider yourself the cause of the outcomes of your actions, nor be attached to inaction.

तात्पर्य:

यहाँ पर तीन विचारणीय बातें हैं- कर्म (स्वधर्म), विकर्म तथा अकर्म। कर्म (स्वधर्म) वे कार्य हैं, जिनका आदेश प्रकृति के गुणों के रूप में प्राप्त किया जाता है। अधिकारी की सम्मति के बिना किये गये कर्म विकर्म कहलाते हैं और अकर्म का अर्थ है- अपने कर्मों को न करना। भगवान् ने अर्जुन को उपदेश दिया कि वह निष्क्रिय न हो, अपितु फल के प्रति आसक्त हुए बिना अपना कर्म करे। कर्म फल के प्रति आसक्त रहने वाला भी कर्म का कारण है। इस तरह वह ऐसे कर्मफलों का भोक्ता होता है।
जहाँ तक निर्धारित कर्मों का सम्बन्ध है वे तीन उपश्रेणियों के हो सकते हैं- यथा नित्यकर्म, आपात्कालीन कर्म तथा इच्छित कर्म। नित्यकर्म फल की इच्छा बिना शास्त्रों के निर्देशानुसार सतोगुण में रहकर किये जाते हैं। फल युक्त कर्म बन्धन के कारण बनते हैं, अतः ऐसे कर्म अशुभ हैं। हर व्यक्ति को अपने कर्म पर अधिकार है, किन्तु उसे फल से अनासक्त होकर कर्म करना चाहिए। ऐसे निष्काम कर्म निस्सन्देह मुक्ति पथ की ओर ले जाने वाले हैं।
अतएव भगवान् ने अर्जुन को फलासक्ति रहित होकर कर्म (स्वधर्म) के रूप में युद्ध करने की आज्ञा दी। उसका युद्ध-विमुख होना आसक्ति का दूसरा पहलू है। ऐसी आसक्ति से कभी मुक्ति पथ की प्राप्ति नहीं हो पाती। आसक्ति चाहे स्वीकारात्मक हो या निषेधात्मक, वह बन्धन का कारण है। अकर्म पापमय है। अतः कर्तव्य के रूप में युद्ध करना ही अर्जुन के लिए मुक्ति का एकमात्र कल्याणकारी मार्ग था।

There are three important concepts to consider here - Karma (duty), Vikarma (wrong actions), and Akarma (inaction). Karma refers to actions prescribed according to one's nature, while Vikarma is actions taken without proper authorization, and Akarma means refraining from actions altogether. Lord Krishna advises Arjuna not to become inactive, but to perform his duties without attachment to their results.
Actions that are driven by desires for outcomes create bondage, whereas actions performed without attachment (Nishkama Karma) lead to liberation. Krishna advises Arjuna to engage in his duty (Swadharma), which in this case is the battle, without attachment to the fruits, as such actions pave the way for liberation.

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