🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 3 श्लोक 19 | Bhagavad Gita Chapter 3, Shlok 19

भगवद गीता अध्याय 3 श्लोक 19

Bhagavad Gita Adhyay 3 Shlok 19 में श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हैं कि मनुष्य को फल की आसक्ति को त्याग कर निरंतर अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से वह परम लक्ष्य को प्राप्त करता है।
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श्लोक:
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः ॥१९॥

Transliteration:
tasmād asaktaḥ satataṁ kāryaṁ karma samāchara
asakto hyācharan karma param āpnoti pūruṣhaḥ

अर्थ:

अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से उसे परब्रह्म (परम) की प्राप्ति होती है।

Meaning:
Therefore, without attachment, always perform your prescribed duty; for by performing duty without attachment, one attains the Supreme.

तात्पर्य:

भक्तों के लिए श्रीभगवान् परम हैं और निर्विशेषवादियों के लिए मुक्ति परम है। अतः जो व्यक्ति समुचित पथप्रदर्शन पाकर और कर्मफल से अनासक्त होकर कृष्ण के लिए या कृष्णभावनामृत में कार्य करता है, वह निश्चित रूप से जीवन-लक्ष्य की ओर प्रगति करता है। अर्जुन से कहा जा रहा है कि वह कृष्ण के लिए कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़े क्योंकि कृष्ण की इच्छा है कि वह ऐसा करे।
उत्तम व्यक्ति होना या अहिंसक होना व्यक्तिगत् आसक्ति है, किन्तु फल की आसक्ति से रहित होकर कार्य करना परमात्मा के लिए कार्य करना है। यह उच्चतम कोटि का पूर्ण कर्म है, जिसकी संस्तुति भगवान् कृष्ण ने की है।
नियत यज्ञ, जैसे वैदिक अनुष्ठान, उन पापकर्मों की शुद्धि के लिए किये जाते हैं, जो इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से किये गए हों। किन्तु कृष्णभावनामृत में जो कर्म किया जाता है वह अच्छे या बुरे कर्म के फलों से परे है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में फल के प्रति लेशमात्र आसक्ति नहीं रहती, वह तो केवल कृष्ण के लिए कार्य करता है। वह समस्त प्रकार के कर्मों में रत रह कर भी पूर्णतया अनासक्त रहा आता है।

For devotees, the Supreme is Krishna Himself; for impersonalists, liberation is the goal. But one who acts under proper guidance without attachment to the results especially in Krishna consciousness—is truly advancing toward life’s ultimate purpose.
Arjuna is advised to fight in the battle of Kurukshetra not out of personal desire, but because Krishna desires it. To act without attachment to success or failure and solely for the satisfaction of the Lord is the highest kind of action, praised by Krishna.
Prescribed Vedic sacrifices may purify sins born from sensory pleasures, but actions in Krishna consciousness are beyond good and bad karma. Such a person has no desire for results and performs every act solely for Krishna, remaining fully detached even while engaged in various activities.

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