🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 6 श्लोक 18 | Bhagavad Gita Chapter 6 Shlok 18

भगवद गीता अध्याय 6 श्लोक 18

Bhagavad Gita Adhyay 6 Shlok 18 में बताया गया है कि जब योगी अपने मन को पूर्ण रूप से नियंत्रित कर लेता है और समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है, तब वह योग में स्थिर कहलाता है।
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श्लोक:
यदा विनियतं चित्तमात्मन्येवावतिष्ठते ।
निस्पृहः सर्वकामेभ्यो युक्त इत्युच्यते तदा ॥१८॥

Transliteration:
yadā viniyataṁ chittam ātmanyevāvatiṣhṭhate
niḥspṛihaḥ sarva-kāmebhyo yukta ityuchyate tadā

अर्थ:

जब योगी योगाभ्यास द्वारा अपने मानसिक कार्यकलापों को वश में कर लेता है और अध्यात्म में स्थित हो जाता है अर्थात् समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हो जाता है, तब वह योग में सुस्थिर कहा जाता है।

Meaning:
When the yogi controls his mind completely and abides in the self alone, free from all desires, then he is said to be truly united (yuktah).

तात्पर्य:

साधारण मनुष्य की तुलना में योगी के कार्यों में यह विशेषता होती है कि वह समस्त भौतिक इच्छाओं से मुक्त रहता है, जिनमें मैथुन प्रमुख है। एक पूर्णयोगी अपने मानसिक कार्यों में इतना अनुशासित होता है कि उसे कोई भी भौतिक इच्छा विचलित नहीं कर सकती।
यह सिद्ध अवस्था कृष्णभावनाभावित व्यक्तियों द्वारा स्वतः प्राप्त हो जाती है, जैसा कि श्रीमद्भागवत में (९.४.१८-२०) कहा गया है—
"राजा अम्बरीष ने सर्वप्रथम अपने मन को भगवान् के चरणकमलों पर स्थिर कर दिया; फिर, क्रमशः अपनी वाणी को कृष्ण के गुणानुवाद में लगाया, हाथों को भगवान् के मन्दिर को स्वच्छ करने, कानों को भगवान् के कार्यकलापों को सुनने, आँखों को भगवान् के दिव्यरूप का दर्शन करने, शरीर को अन्य भक्तों के शरीरों का स्पर्श करने, घ्राणेन्द्रिय को भगवान् पर चढ़ाये गये कमलपुष्प की सुगन्ध सुँघने, जीभ को भगवान् के चरणकमलों पर चढ़ाये गये तुलसी पत्रों का स्वाद लेने, पाँवों को तीर्थयात्रा करने तथा भगवान् के मन्दिर तक जाने, सिर को भगवान् को प्रणाम करने तथा अपनी इच्छाओं को भगवान् की इच्छा पूरी करने में लगा दिया।
ये सारे दिव्यकार्य शुद्ध भक्त के सर्वथा अनुरूप हैं।"
निर्विशेषवादियों के लिए यह दिव्य व्यवस्था अनिर्वचनीय हो सकती है, किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए यह अत्यन्त सुगम एवं व्यावहारिक है, जैसा कि महाराज अम्बरीष की उपरिवर्णित जीवनचर्या से स्पष्ट हो जाता है।
जब तक निरन्तर स्मरण द्वारा भगवान् के चरणकमलों में मन को स्थिर नहीं कर लिया जाता, तब तक ऐसे दिव्यकार्य व्यावहारिक नहीं बन पाते। अतः भगवान् की भक्ति में इन विहित कार्यों को अर्चन् कहते हैं जिसका अर्थ है- समस्त इन्द्रियों को भगवान् की सेवा में लगाना।
इन्द्रियों तथा मन को कुछ न कुछ कार्य चाहिए। कोरा निग्रह व्यावहारिक नहीं है। अतः सामान्य लोगों के लिए- विशेषकर जो लोग संन्यास आश्रम में नहीं हैं- ऊपर वर्णित इन्द्रियों तथा मन का दिव्यकार्य ही दिव्य सफलता की सही विधि है, जिसे भगवद्गीता में युक्त कहा गया है।

The yogi's hallmark is freedom from all material desires, including lust, and perfect control over mental activities. This state is naturally attained by those devoted to Krishna consciousness, as illustrated by King Ambarisha in Srimad Bhagavatam (9.4.18-20), who dedicated all his senses and mind in the service of the Lord.
Such activities are practical and accessible to Krishna-conscious practitioners and represent true engagement of the senses in divine service (archana). Merely restraining the senses without engaging them is impractical for most people, especially householders. Hence, performing regulated devotional activities with mind and senses engaged is the practical path to success in devotion, as called yukta in Bhagavad Gita.

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