Bhagavad Gita Adhyay 6 Shlok 37 में अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि जो योगी अभ्यास के बीच में ही विचलित हो जाता है और सिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता, उसकी क्या गति होती है?
श्लोक:
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाञ्चलितमानसः।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति॥३७॥
Transliteration:
ayatiḥ śhraddhayopeto yogāch chalita-mānasaḥ
aprāpya yoga-sansiddhiṁ kāṅ gatiṁ kṛiṣhṇa gachchhati
अर्जुन ने कहाः हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है, जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है, किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता?
Meaning:
Arjuna said: O Krishna, what is the fate of the unsuccessful yogi who begins the path of self-realization with faith but later deviates due to a lack of perseverance and fails to attain perfection in yoga?
भगवद्गीता में आत्म-साक्षात्कार या योग मार्ग का वर्णन है। आत्म-साक्षात्कार का मूलभूत नियम यह है कि जीवात्मा यह भौतिक शरीर नहीं है, अपितु इससे भिन्न है और उसका सुख शाश्वत जीवन, आनन्द तथा ज्ञान में निहित है। ये शरीर तथा मन दोनों से परे हैं।
आत्म-साक्षात्कार की खोज ज्ञान द्वारा की जाती है। इसके लिए अष्टांग विधि या भक्तियोग का अभ्यास करना होता है।
इनमें से प्रत्येक विधि में जीव को अपनी स्वाभाविक स्थिति, भगवान् से अपने सम्बन्ध तथा उन कार्यों की अनुभूति प्राप्त करनी होती है, जिनके द्वारा वह टूटी हुई श्रृंखला को जोड़ सके और कृष्णभावनामृत की सर्वोच्च सिद्ध-अवस्था प्राप्त कर सके। इन तीनों विधियों में से किसी एक का भी पालन करके मनुष्य देर-सवेर अपने चरम लक्ष्य को प्राप्त होता है।
भगवान् ने द्वितीय अध्याय में इस पर बल दिया है कि दिव्यमार्ग में थोड़े से प्रयास से भी मोक्ष की महती आशा है। इन तीनों में से इस युग के लिए भक्तियोग विशेष रूप से उपयुक्त है, क्योंकि ईश-साक्षात्कार की यह श्रेष्ठतम प्रत्यक्ष विधि है, अत: अर्जुन पुनः आश्वस्त होने की दृष्टि से भगवान् कृष्ण से अपने पूर्वकथन की पुष्टि करने को कहता है।
भले ही कोई आत्म-साक्षात्कार के मार्ग को निष्ठापूर्वक क्यों न स्वीकार करे, किन्तु ज्ञान की अनुशीलन विधि तथा अष्टांगयोग का अभ्यास इस युग के लिए सामान्यतया बहुत कठिन है, अतः निरन्तर प्रयास होने पर भी मनुष्य अनेक कारणों से असफल हो सकता है।
पहला कारण तो यह हो सकता है कि मनुष्य इस विधि का पालन करने में पर्याप्त सतर्क न रह पाये। दिव्यमार्ग का अनुसरण बहुत कुछ माया के ऊपर धावा बोलना जैसा है। फलतः जब भी मनुष्य माया के पाश से छूटना चाहता है, तब वह विविध प्रलोभनों के द्वारा अभ्यासकर्ता को पराजित करना चाहती है।
बद्धजीव पहले से प्रकृति के गुणों द्वारा मोहित रहता है और दिव्य अनुशासनों का पालन करते समय भी उसके पुनः मोहित होने की सम्भावना बनी रहती है। यही योगाच्चलितमानस अर्थात् दिव्य पथ से विचलन कहलाता है। अर्जुन आत्म-साक्षात्कार के मार्ग से विचलन के प्रभाव के सम्बन्ध में जिज्ञासा करता है।
The Bhagavad Gita discusses the path of self-realization through yoga. The fundamental principle is that the soul is distinct from the body and finds real happiness in eternal life, knowledge, and bliss. The means of self-realization include jñāna-yoga, aṣṭāṅga-yoga, and bhakti-yoga.
Regardless of the method followed, each leads to the realization of one's true identity, one’s relationship with God, and the actions required to reconnect spiritually. In the Second Chapter, Lord Krishna affirms that even a little progress on this divine path protects one from great danger.
However, Arjuna seeks clarification: what happens if someone begins with faith but becomes distracted due to material temptations and cannot complete the process?
This is a real concern, especially in this age (Kali-yuga), where following strict yogic disciplines is difficult. Despite sincere effort, one may fail due to lack of vigilance or the powerful allure of māyā (illusion).
Falling from the path of yoga is referred to as "yogāc calita-mānasaḥ"—one whose mind becomes diverted from the yogic goal. Arjuna is inquiring about the fate of such a person who begins sincerely but loses focus before achieving perfection.
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