🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 7 श्लोक 30 | Bhagavad Gita Chapter 7 Shlok 30

भगवद गीता अध्याय 7 श्लोक 30

Bhagavad Gita Adhyay 7 Shlok 30 में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो भक्त उन्हें अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ रूप में समझते हैं, वे मृत्यु के समय भी उन्हें भुलाते नहीं और उन्हें प्राप्त कर लेते हैं।
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श्लोक:
साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः॥३०॥

Transliteration:
sādhibhūtādhidaivaṁ māṁ sādhiyajñaṁ cha ye viduḥ
prayāṇa-kāle ’pi cha māṁ te vidur yukta-chetasaḥ

अर्थ:

जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत् का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान् को जान और समझ सकते हैं।

Meaning:
Those who know Me as the governing principle of the material manifestation (Adhibhuta), of the demigods (Adhidaiva), and of all sacrifices (Adhiyajna), with steadfast mind, can understand and remember Me even at the time of death.

तात्पर्य:

कृष्णभावनामृत में कर्म करने वाले मनुष्य कभी भी भगवान् को पूर्णतया समझने के पथ से विचलित नहीं होते। कृष्णभावनामृत के दिव्य सान्निध्य से मनुष्य यह समझ सकता है कि भगवान् किस तरह भौतिक जगत् तथा देवताओं तक के नियामक हैं। धीरे-धीरे ऐसी दिव्य संगति से मनुष्य का भगवान् में विश्वास बढ़ता है, अतः मृत्यु के समय ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण को कभी भुला नहीं पाता। अतएव वह सहज ही भगवद्धाम गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है।
यह सातवाँ अध्याय विशेष रूप से बताता है कि कोई किस प्रकार से पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो सकता है। कृष्णभावना का शुभारम्भ ऐसे व्यक्तियों के सान्निध्य से होता है, जो कृष्णभावनाभावित होते हैं। ऐसा सान्निध्य आध्यात्मिक होता है और इससे मनुष्य प्रत्यक्ष भगवान् के संसर्ग में आता है और भगवत्कृपा से वह कृष्ण को भगवान् समझ सकता है। साथ ही वह जीव के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है और यह समझ सकता है कि किस प्रकार जीव कृष्ण को भुलाकर भौतिक कार्यों में उलझ जाता है। सत्संगति में रहने से कृष्णभावना के क्रमिक विकास से जीव यह समझ सकता है कि किस प्रकार कृष्ण को भुलाने से वह प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध हुआ है। वह यह भी समझ सकता है कि यह मनुष्य जीवन कृष्णभावनामृत को पुनः प्राप्त करने के लिए मिला है, अतः इसका सदुपयोग परमेश्वर की अहैतुकी कृपा प्राप्त करने के लिए करना चाहिए।
इस अध्याय में जिन अनेक विषयों की विवेचना की गई है वे हैं- दुःख में पड़ा हुआ मनुष्य, जिज्ञासु मानव, अभावग्रस्त मानव, ब्रह्म ज्ञान, परमात्मा ज्ञान, जन्म, मृत्यु तथा रोग से मुक्ति एवं परमेश्वर की पूजा। किन्तु जो व्यक्ति वास्तव में कृष्णभावनामृत को प्राप्त है, वह विभिन्न विधियों की परवाह नहीं करता। वह सीधे कृष्णभावनामृत के कार्यों में प्रवृत्त होता है और उसी से भगवान् कृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त करता है। ऐसी अवस्था में वह शुद्धभक्ति में परमेश्वर के श्रवण तथा गुणगान में आनन्द पाता है। उसे पूर्ण विश्वास रहता है कि ऐसा करने से उसके सारे उद्देश्यों की पूर्ति होगी। ऐसी दृढ़ श्रद्धा दृढव्रत कहलाती है और यह भक्तियोग या दिव्य प्रेमाभक्ति की शुरुआत होती है। समस्त शास्त्रों का भी यही मत है। भगवद्गीता का यह सातवाँ अध्याय इसी निश्चय का सारांश है।

Those who fully engage in Krishna consciousness never deviate from understanding the Supreme Lord in His various aspects as the controller of matter (Adhibhuta), of demigods (Adhidaiva), and of all sacrifices (Adhiyajna). Through constant association with Krishna's devotees and devotional activities, their understanding becomes firm and unshakable.
At the time of death, such individuals can remember Krishna and thereby attain His supreme abode Goloka Vrindavana.
This chapter emphasizes how to become fully Krishna conscious. It begins with four types of people who approach the Lord and gradually develops into the understanding of Brahman, Paramatma, and Bhagavan.
The conclusion is that true spiritual life begins by associating with pure devotees. By their influence, one can understand one’s true nature as Krishna’s eternal servant, break free from material illusions, and become absorbed in the Lord’s glories with full faith.
This firm resolve (dridha-vrata) marks the beginning of pure devotional service and the path to perfection. This is the essence of Chapter 7.

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