🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 9 श्लोक 12 | Bhagavad Gita Chapter 9 Shlok 12

भगवद गीता अध्याय 9 श्लोक 12

Bhagavad Gita Adhyay 9 Shlok 12 में श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो लोग आसुरी प्रकृति से युक्त होकर मोह में पड़े रहते हैं, उनकी भक्ति, ज्ञान और कर्म सभी व्यर्थ हो जाते हैं। ऐसे लोग कृष्ण को परमेश्वर नहीं मानते और सच्चे मोक्ष से वंचित रह जाते हैं।
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श्लोक:
मोघाशा मोघकर्माणो मोघज्ञाना विचेतसः।
राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः॥१२॥

Transliteration:
moghāśhā mogha-karmāṇo mogha-jñānā vichetasaḥ
rākṣhasīm āsurīṁ chaiva prakṛitiṁ mohinīṁ śhritāḥ

अर्थ:

जो लोग इस प्रकार मोहग्रस्त होते हैं, वे आसुरी तथा नास्तिक विचारों के प्रति आकृष्ट रहते हैं। इस मोहग्रस्त अवस्था में उनकी मुक्ति-आशा, उनके सकाम कर्म तथा ज्ञान का अनुशीलन सभी निष्फल हो जाते हैं।

Meaning:
Those who are deluded and lack proper understanding, whose hopes, actions, and knowledge are all in vain such foolish persons take shelter in demoniac and atheistic natures, remaining always bewildered by illusion.

तात्पर्य:

ऐसे अनेक भक्त हैं, जो अपने को कृष्णभावनामृत तथा भक्ति में रत दिखलाते हैं, किन्तु अन्तःकरण से वे भगवान् कृष्ण को परब्रह्म नहीं मानते। ऐसे लोगों को कभी भी भक्ति-फल भगवद्धाम गमन प्राप्त नहीं होता।

इसी प्रकार जो पुण्यकर्मों में लगे रहकर अन्ततः इस भवबन्धन से मुक्त होना चाहते हैं, वे भी सफल नहीं हो पाते, क्योंकि वे कृष्ण का उपहास करते हैं।

दूसरे शब्दों में, जो लोग कृष्ण पर हँसते हैं, उन्हें आसुरी या नास्तिक समझना चाहिए। जैसा कि सातवें अध्याय में बताया गया है, ऐसे आसुरी दुष्ट कभी भी कृष्ण की शरण में नहीं जाते।

अतः परम सत्य तक पहुँचने के उनके मानसिक चिन्तन उन्हें इस मिथ्या परिणाम को प्राप्त कराते हैं कि सामान्य जीव तथा कृष्ण एक समान हैं। ऐसी मिथ्या धारणा के कारण वे सोचते हैं कि अभी तो यह शरीर प्रकृति द्वारा केवल आच्छादित है और ज्योंही व्यक्ति मुक्त होगा, तो उसमें तथा ईश्वर में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा।

कृष्ण से समता का यह प्रयास भ्रम के कारण निष्फल हो जाता है। इस प्रकार का आसुरी तथा नास्तिक ज्ञान-अनुशीलन सदैव व्यर्थ रहता है, यही इस श्लोक का संकेत है।

ऐसे व्यक्तियों के लिए वेदान्त सूत्र तथा उपनिषदों जैसे वैदिक वाङ्मय का ज्ञान भी निष्फल हो जाता है। अतः भगवान् कृष्ण को सामान्य व्यक्ति मानना घोर अपराध है।

बृहद्विष्णु स्मृति का कथन है:
"यो वेत्ति भौतिकं देहं कृष्णस्य परमात्मनः ।
स सर्वस्माद् बहिष्कार्यः श्रौतस्मार्तविधानतः ।
मुखं तस्यावलोक्यापि सचेलं स्नानमाचरेत् ॥"

"जो कृष्ण के शरीर को भौतिक मानता है, उसे श्रुति तथा स्मृति के समस्त अनुष्ठानों से वंचित कर देना चाहिए। यदि कोई भूल से उसका मुँह देख ले तो उसे तुरन्त गंगा स्नान करना चाहिए, जिससे छूत दूर हो सके।"

लोग कृष्ण की हँसी उड़ाते हैं क्योंकि वे भगवान् से ईर्ष्या करते हैं। उनके भाग्य में जन्म-जन्मान्तर तक नास्तिक तथा असुर योनियों में रहना लिखा है। उनका वास्तविक ज्ञान सदैव के लिए भ्रम में रहेगा और धीरे-धीरे वे सृष्टि के गहनतम अन्धकार में गिरते जायेंगे।

Many so-called devotees may appear to follow the process of bhakti-yoga, but if internally they do not accept Krishna as the Supreme Personality of Godhead, their efforts are ultimately useless. Such people can never attain the goal of devotional service, which is to reach Krishna's abode.

Likewise, those who perform pious acts hoping to achieve liberation from material bondage also fail if they deride Krishna or view Him as merely a powerful human being. This mentality is categorized as demoniac (asuric) or atheistic.

They falsely think that once the soul is liberated from material nature, there is no difference between the individual and Krishna. This misconception leads them to believe in an illusory oneness with God, which causes their spiritual efforts to become fruitless.

As stated in Vedanta-sutra and Upanishads, one must not mistake Krishna’s form as material. To consider Krishna's body to be mundane is a grave offense.
The Bṛhad-Viṣṇu Smṛti even says:

"One who considers Krishna’s transcendental body to be material should be banned from all scriptural practices. If one accidentally sees such a person’s face, they must immediately bathe in the Ganges."

These envious souls repeatedly take birth in demoniac and atheistic species. Their real knowledge is forever lost, and they descend deeper into material darkness.

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