🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 11 श्लोक 41-42 | Bhagavad Gita Chapter 11 Shlok 41-42

भगवद गीता अध्याय 11 श्लोक 41-42

Bhagavad Gita Adhyay 11 Shlok 41-42 में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहता है कि उसने उन्हें केवल एक मित्र समझ कर जाने-अनजाने में उनका अपमान किया है, अब जब वह उनकी दिव्यता जान चुका है, तो वह अपने सभी अपराधों के लिए क्षमा याचना करता है।
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श्लोक:
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं
हे कृष्ण हे यादव हे सखेति ।
अजानता महिमानं तवेदं
मया प्रमादात्प्रणयेन वापि ॥४१॥

यच्चावहासार्थमसत्कृतोऽसि
विहारशय्यासनभोजनेषु ।
एकोऽथवाप्यच्युत तत्समक्षं
तत्क्षामये त्वामहमप्रमेयम् ॥४२॥

Transliteration:
sakheti matvā prasabhaṁ yad uktaṁ
he kṛiṣhṇa he yādava he sakheti
ajānatā mahimānaṁ tavedaṁ
mayā pramādāt praṇayena vāpi

yach chāvahāsārtham asat-kṛito ’si
vihāra-śhayyāsana-bhojaneṣhu
eko ’tha vāpy achyuta tat-samakṣhaṁ
tat kṣhāmaye tvām aham aprameyam

अर्थ:

आपको अपना मित्र मानते हुए मैंने हठपूर्वक आपको हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा जैसे सम्बोधनों से पुकारा है, क्योंकि मैं आपकी महिमा को नहीं जानता था। मैंने मूर्खतावश या प्रेमवश जो कुछ भी किया है, कृपया उसके लिए मुझे क्षमा कर दें। यही नहीं, मैंने कई बार आराम करते समय, एकसाथ लेटे हुए या साथ-साथ खाते या बैठे हुए, कभी अकेले तो कभी अनेक मित्रों के समक्ष आपका अनादर किया है। हे अच्युत ! मेरे इन समस्त अपराधों को क्षमा करें।

Meaning:
Thinking of You as my friend, I presumptuously addressed You as “O Krishna,” “O Yadava,” “O my dear mate,” without knowing Your greatness. In moments of casualness, while resting, sitting, eating, or joking sometimes alone and sometimes in front of others I may have shown disrespect. O Infallible One! Please forgive all these offenses, O You who are immeasurable.

तात्पर्य:

यद्यपि अर्जुन के समक्ष कृष्ण अपने विराट रूप में हैं, किन्तु उसे कृष्ण के साथ अपना मैत्रीभाव स्मरण है। इसीलिए वह मित्रता के कारण होने वाले अनेक अपराधों को क्षमा करने के लिए प्रार्थना कर रहा है। वह स्वीकार करता है कि पहले उसे ज्ञात न था कि कृष्ण ऐसा विराट रूप धारण कर सकते हैं, यद्यपि मित्र के रूप में कृष्ण ने उसे यह समझाया था। अर्जुन को यह भी पता नहीं था कि उसने कितनी बार 'हे मेरे मित्र', 'हे कृष्ण', 'हे यादव' जैसे सम्बोधनों के द्वारा उनका अनादर किया है और उनकी महिमा स्वीकार नहीं की। किन्तु कृष्ण इतने कृपालु हैं कि इतने ऐश्वर्यमण्डित होने पर भी अर्जुन से मित्र की भूमिका निभाते रहे। ऐसा होता है भक्त तथा भगवान् के बीच दिव्य प्रेम का आदान-प्रदान।
जीव तथा कृष्ण का सम्बन्ध शाश्वत रूप से स्थिर है, इसे भुलाया नहीं जा सकता, जैसा कि हम अर्जुन के आचरण में देखते हैं। यद्यपि अर्जुन विराट रूप का ऐश्वर्य देख चुका है, किन्तु वह कृष्ण के साथ अपनी मैत्री नहीं भूल सकता।

Though Arjuna is now witnessing the supreme cosmic form of Krishna, he still remembers their friendship. Hence, he seeks forgiveness for all past informal behavior done in ignorance or affection. This reflects the eternal, intimate bond between the soul and the Supreme Lord. Despite Krishna’s majestic form, He graciously accepted Arjuna's friendship, showing the divine exchange of love between devotee and God.

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