🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 11 श्लोक 45 | Bhagavad Gita Chapter 11 Shlok 45

भगवद गीता अध्याय 11 श्लोक 45

Bhagavad Gita Adhyay 11 Shlok 45 में अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण के विराट रूप को देखकर आश्चर्यचकित होने के साथ-साथ भयभीत भी हो जाते हैं। वे श्रीकृष्ण से उनके पूर्व परिचित, शांत और सौम्य नारायण रूप को पुनः दिखाने की विनती करते हैं।
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श्लोक:
अदृष्टपूर्वं हृषितोऽस्मि दृष्ट्वा
भयेन च प्रव्यथितं मनो मे ।
तदेव मे दर्शय देव रूपं
प्रसीद देवेश जगन्निवास ॥४५॥

Transliteration:
adṛiṣhṭa-pūrvaṁ hṛiṣhito ’smi dṛiṣhṭvā
bhayena cha pravyathitaṁ mano me
tad eva me darśhaya deva rūpaṁ
prasīda deveśha jagan-nivāsa

अर्थ:

पहले कभी न देखे गये आपके इस विराट रूप का दर्शन करके मैं पुलकित हो रहा हूँ, किन्तु साथ ही मेरा मन भयभीत हो रहा है। अतः आप मुझ पर कृपा करें और हे देवेश, हे जगन्निवास ! अपना पुरुषोत्तम भगवत् स्वरूप पुनः दिखाएँ।

Meaning:
I am thrilled by having seen what was never seen before, yet my mind is tormented with fear. O Lord of lords, O refuge of the universe, please be gracious to me and reveal once again Your familiar divine form.

तात्पर्य:

अर्जुन को कृष्ण पर विश्वास है, क्योंकि वह उनका प्रिय मित्र है और मित्र रूप में वह अपने मित्र के ऐश्वर्य को देखकर अत्यन्त पुलकित है। अर्जुन यह देख कर अत्यन्त प्रसन्न है कि उसके मित्र कृष्ण भगवान् हैं और वे ऐसा विराट रूप प्रदर्शित कर सकते हैं। किन्तु साथ ही वह इस विराट रूप को देखकर भयभीत है कि उसने अनन्य मैत्रीभाव के कारण कृष्ण के प्रति अनेक अपराध किये हैं। इस प्रकार भयवश उसका मन विचलित है, यद्यपि भयभीत होने का कोई कारण नहीं है। अतएव अर्जुन कृष्ण से प्रार्थना करता है कि वे अपना नारायण रूप दिखाएँ, क्योंकि वे कोई भी रूप धारण कर सकते हैं। यह विराट रूप भौतिक जगत के ही तुल्य भौतिक एवं नश्वर है।
किन्तु वैकुण्ठलोक में नारायण के रूप में उनका शाश्वत चतुर्भुज रूप रहता है। वैकुण्ठलोक में असंख्य लोक हैं और कृष्ण इन सबमें अपने भिन्न नामों से अंश रूप में विद्यमान हैं। इस प्रकार अर्जुन वैकुण्ठलोक के उनके किसी एक रूप को देखना चाहता था। निस्सन्देह प्रत्येक वैकुण्ठलोक में नारायण का स्वरूप चतुर्भुजी है, किन्तु इन चारों हाथों में वे विभिन्न क्रम में शंख, गदा, कमल तथा चक्र के चिह्न धारण किये रहते हैं। विभिन्न हाथों में इन चारों चिह्नों के अनुसार नारायण भिन्न-भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं। ये सारे रूप कृष्ण के ही हैं, इसलिए अर्जुन कृष्ण के चतुर्भुज रूप का दर्शन करना चाहता है।

Arjuna, though overjoyed by seeing the never-before-witnessed universal form, becomes unsettled and frightened by its overwhelming power. He humbly requests Krishna to now show His gentle, personal form the familiar divine form of Narayana which brings comfort, love, and devotion. This moment reflects the deep personal bond between devotee and the Divine, where awe transforms into a yearning for intimacy.

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