🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 13 श्लोक 18 | Bhagavad Gita Chapter 13 Shlok 18

भगवद गीता अध्याय 13 श्लोक 18

Bhagavad Gita Adhyay 13 Shlok 18 में बताया गया है कि भगवान् ही सभी प्रकाशमान वस्तुओं के मूल प्रकाश हैं। वे भौतिक अंधकार से परे हैं, स्वयं ज्ञान हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान के लक्ष्य हैं। वे प्रत्येक प्राणी के हृदय में स्थित रहते हैं।
bhagavad-gita-chapter-13-shlok-18
श्लोक:
ज्योतिषामपि तज्ज्योतिस्तमसः परमुच्यते।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि सर्वस्य विष्ठितम् ॥१८॥

Transliteration:
jyotiṣhām api taj jyotis tamasaḥ param uchyate
jñānaṁ jñeyaṁ jñāna-gamyaṁ hṛidi sarvasya viṣhṭhitam

अर्थ:

वे समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्त्रोत हैं। वे भौतिक अंधकार से परे हैं और अगोचर हैं। वे ज्ञान हैं, ज्ञेय हैं और ज्ञान के लक्ष्य हैं। वे सबके हृदय में स्थित हैं।

Meaning:
He is the source of light in all luminous objects. He is beyond the darkness of matter and is unmanifest. He is knowledge, the object of knowledge, and the goal of knowledge. He is situated in the hearts of all beings.

तात्पर्य:

परमात्मा या भगवान् ही सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्रों जैसी समस्त प्रकाशमान वस्तुओं के प्रकाशस्त्रोत हैं। वैदिक साहित्य से हमें पता चलता है कि वैकुण्ठ राज्य में सूर्य या चन्द्रमा की आवश्यकता नहीं पड़ती, क्योंकि वहाँ पर परमेश्वर का तेज ही सबको प्रकाशित करता है।
भौतिक जगत् में वह ब्रह्मज्योति या भगवान् का आध्यात्मिक तेज महत्तत्त्व अर्थात् भौतिक तत्त्वों से ढका रहता है। अतः इस जगत् में हमें सूर्य, चन्द्र, बिजली आदि के प्रकाश की आवश्यकता पड़ती है, लेकिन आध्यात्मिक जगत् में ऐसी वस्तुओं की आवश्यकता नहीं होती। वैदिक साहित्य में स्पष्ट कहा गया है कि भगवान् के प्रकाशमय तेज से प्रत्येक वस्तु प्रकाशित रहती है। अतः यह स्पष्ट है कि वे इस भौतिक जगत् में स्थित नहीं हैं, वे तो आध्यात्मिक जगत् (वैकुण्ठ लोक) में स्थित हैं, जो चिन्मय आकाश में बहुत दूरी पर है।
इसकी पुष्टि वैदिक साहित्य से होती है - “आदित्यवर्णं तमसः परस्तात्” (श्वेताश्वतर उपनिषद् ३.८)। वे सूर्य की भाँति अत्यन्त तेजोमय हैं, लेकिन इस भौतिक जगत के अन्धकार से बहुत दूर हैं।
उनका ज्ञान दिव्य है। वैदिक साहित्य पुष्टि करता है कि ब्रह्म घनीभूत दिव्य ज्ञान है। जो वैकुण्ठलोक जाने का इच्छुक है, उसे परमेश्वर द्वारा ज्ञान प्रदान किया जाता है, जो प्रत्येक हृदय में स्थित हैं। एक वैदिक मन्त्र है (श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.१८) - “तं ह देवम् आत्मबुद्धिप्रकाशं मुमुक्षुर्वै शरणमहं प्रपद्ये”। मुक्ति के इच्छुक मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् की शरण में जाए।
जहाँ तक चरम ज्ञान के लक्ष्य का सम्बन्ध है, वैदिक साहित्य से भी पुष्टि होती है - “तमेव विदित्वाति मृत्युमेति” (श्वेताश्वतर उपनिषद् ३.८) - उन्हें जान लेने के बाद ही जन्म तथा मृत्यु की परिधि को लाँघा जा सकता है।
वे प्रत्येक हृदय में परम नियन्ता के रूप में स्थित हैं। परमेश्वर के हाथ-पैर सर्वत्र फैले हैं, लेकिन जीवात्मा के विषय में ऐसा नहीं कहा जा सकता। अतः यह मानना ही पड़ेगा कि कार्य क्षेत्र को जानने वाले दो ज्ञाता हैं- एक जीवात्मा तथा दूसरा परमात्मा। पहले के हाथ-पैर केवल किसी एक स्थान तक सीमित हैं, जबकि कृष्ण के हाथ-पैर सर्वत्र फैले हैं।
इसकी पुष्टि श्वेताश्वतर उपनिषद् (३.१७) में इस प्रकार हुई है - “सर्वस्य प्रभुमीशानं सर्वस्य शरणं बृहत्”। वह परमेश्वर या परमात्मा समस्त जीवों का स्वामी या प्रभु है, अतएव वह उन सबका चरम आश्रय है। अतएव इस बात से मना नहीं किया जा सकता कि परमात्मा तथा जीवात्मा सदैव भिन्न होते हैं।

The Supreme Lord is the source of light in the sun, the moon, and all luminous objects. In the spiritual world, there is no need of sun or moon, for the effulgence of the Lord Himself illuminates everything. In the material world, however, that effulgence, known as the Brahmajyoti, is covered by matter, hence the need of sun, moon, and fire.
The Vedic scriptures state that the Lord’s effulgence pervades everything, yet He is transcendental to the material world and exists in His spiritual abode. He is knowledge, the knower, and the goal of knowledge, and He resides within everyone’s heart as the supreme controller.
The Vedic hymn confirms: “ādityavarṇaṁ tamasaḥ parastāt” (Śvetāśvatara Upaniṣad 3.8) – the Lord is self-effulgent like the sun, beyond material darkness.
The Upaniṣads further declare: “tam eva viditvāti mṛityum eti” – only by knowing Him can one transcend birth and death. Another verse states: “taṁ ha devam ātma-buddhi-prakāśaṁ mumukṣur vai śaraṇam ahaṁ prapadye” (Śvetāśvatara Upaniṣad 6.18) – the seeker of liberation should surrender unto that Supreme Lord.
Thus, there are always two knowers of the field: the individual soul and the Supersoul. The jiva’s hands and legs are limited to one body, but the Lord’s hands and legs are everywhere. Therefore, the Lord is the ultimate shelter of all living beings, eternally distinct from the individual soul.

एक टिप्पणी भेजें

Post a Comment (0)

और नया पुराने