Bhagavad Gita Adhyay 17 Shlok 3 में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि प्रत्येक जीव की श्रद्धा उसके स्वभाव और गुणों के अनुसार होती है। मनुष्य जैसा गुण अर्जित करता है, वैसी ही उसकी श्रद्धा बन जाती है।
श्लोक:
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः ॥३॥
Transliteration:
sattvānurūpā sarvasya śhraddhā bhavati bhārata
śhraddhā-mayo ‘yaṁ puruṣho yo yach-chhraddhaḥ sa eva saḥ
हे भरतपुत्र! प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा उसके अर्जित गुणों के अनुरूप होती है। वास्तव में मनुष्य श्रद्धामय होता है और जैसा उसकी श्रद्धा होती है, वैसा ही वह स्वयं बन जाता है।
Meaning:
O son of Bharata, the faith of every person is shaped according to the modes he has acquired. A man is made of faith, and whatever his faith is, that is what he truly becomes.
प्रत्येक व्यक्ति में, चाहे वह जैसा भी हो, एक विशेष प्रकार की श्रद्धा पाई जाती है। लेकिन उसके अर्जित स्वभाव के अनुसार श्रद्धा सात्त्विक, राजसिक अथवा तामसिक कहलाती है। इसी विशेष श्रद्धा के कारण वह लोगों की विशेष संगति करता है। वास्तविकता यह है कि हर जीव परमेश्वर का अंश है और मूलतः निर्गुण है, किन्तु भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को भूलकर जब वह भौतिक प्रकृति के संसर्ग में आता है, तो विभिन्न गुणों से प्रभावित होकर अलग-अलग श्रद्धा विकसित करता है।
यह श्रद्धा कृत्रिम और भौतिक होती है। यद्यपि श्रद्धा शब्द मूलतः सात्त्विकता को इंगित करता है, लेकिन भौतिक जीवन में यह शुद्ध नहीं रहती और प्रकृति के अन्य गुणों से मिश्रित हो जाती है। जब तक श्रद्धा पूर्ण रूप से सात्त्विक नहीं होती, तब तक वह दूषित रहती है। हृदय जिस गुण के सम्पर्क में होता है, श्रद्धा उसी गुण के अनुसार होती है। अतः यदि हृदय सतोगुण में है, श्रद्धा भी सतोगुणी होगी; यदि रजोगुण में है, श्रद्धा रजोगुणी होगी; और यदि तमोगुण में है, श्रद्धा तमोगुणी होगी। यही कारण है कि संसार में विभिन्न प्रकार की श्रद्धाएँ और धर्म देखने को मिलते हैं।
Every individual has a particular type of faith depending on the modes of nature he has acquired. This faith is not original but born out of material association. Though the soul is inherently transcendental, when it forgets its relationship with God, it develops faith according to material modes. Pure sattva reveals divine truth and helps one understand God’s nature. Until faith becomes fully purified, it remains mixed and colored by rajas and tamas. Thus, varieties of faith lead to varieties of religions and forms of worship. True religious faith, however, rests in sattva, and by purification of the heart, one can elevate his faith and return to Krishna consciousness.

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