🛕 श्रीमद्‍भगवद्‍ गीता 🛕

भगवद गीता अध्याय 18 श्लोक 27 | Bhagavad Gita Chapter 18 Shlok 27

भगवद गीता अध्याय 18 श्लोक 27

Bhagavad Gita Adhyay 18 Shlok 27 में भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि जो कर्ता कर्मफल की इच्छा से आसक्त, लोभी, अपवित्र और सुख-दुःख से प्रभावित होता है, वह राजसी कर्ता कहलाता है।
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श्लोक:
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽश्रुचिः ।
हर्षशोकान्वितः कर्ता राजसः परिकीर्तितः ॥२७॥

Transliteration:
rāgī karma-phala-prepsur lubdho hinsātmako ‘śhuchiḥ
harṣha-śhokānvitaḥ kartā rājasaḥ parikīrtitaḥ

अर्थ:

जो कर्ता कर्म तथा कर्म फल के प्रति आसक्त होकर फलों का भोग करना चाहता है तथा जो लोभी, सदैव ईर्ष्यालु, अपवित्र और सुख-दुःख से विचलित होने वाला है, वह राजसी कहा जाता है।

Meaning:
The doer who is attached, greedy, violent, impure, and swayed by joy and sorrow, desiring the fruits of actions, is declared to be rajasic.

तात्पर्य:

मनुष्य सदैव किसी कार्य के प्रति या फल के प्रति इसलिए अत्यधिक आसक्त रहता है, क्योंकि वह भौतिक पदार्थों, घर-बार, पत्नी तथा पुत्र के प्रति अत्यधिक अनुरक्त होता है। ऐसा व्यक्ति जीवन में ऊपर उठने की आकांक्षा नहीं रखता। वह इस संसार को यथासम्भव आरामदेह बनाने में ही व्यस्त रहता है। सामान्यतः वह अत्यन्त लोभी होता है और सोचता है कि उसके द्वारा प्राप्त की गई प्रत्येक वस्तु स्थायी है और कभी नष्ट नहीं होगी। ऐसा व्यक्ति अन्यों से ईर्ष्या करता है और इन्द्रियतृप्ति के लिए कोई भी अनुचित कार्य कर सकता है। अतएव ऐसा व्यक्ति अपवित्र होता है और वह इसकी चिन्ता नहीं करता कि उसकी कमाई शुद्ध है या अशुद्ध। यदि उसका कार्य सफल हो जाता है तो वह अत्यधिक प्रसन्न और असफल होने पर अत्यधिक दुःखी होता है। रजोगुणी कर्ता ऐसा ही होता है।

A rajasic doer is motivated by attachment to results. He is greedy, envious, and acts even at the cost of morality. He fluctuates between joy in success and sorrow in failure, making his nature restless and impure. Such a performer of action is under the influence of passion (rajas).

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